बुढ़ापा
कठिन बुढ़ापे की डगर, रुके नहीं पर चाल।
गहन अँधेरा चीर दो, लेकर हाथ मशाल।।
तन तो बूढ़ा हो गया, मन से रहो जवान।
जब मन से बूढ़ा हुआ, टूट गया इंसान।।
डरा बुढ़ापा देख कर, ये कैसा दस्तूर।
जो जितने नजदीक थे, आज हुए हैं दूर।।
गिरी हुई हूँ टूट कर, थमने को है श्वास।
मन का पंछी थाम कर, बँधा रहा है आस।।
खिले पुष्प मुरझा गये,रहा नहीं मकरंद।
जर्जर तन जाना नहीं,क्या होता आनंद?।
उफ! कितना मादक भरा,पुष्पों में मकरंद।
मगर पुष्प पाये कहाँ, यह अक्षय आनंद।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली