बुझी राख
बुझी राख
मेरा नाम दिनभर लेता है
फिर भी मुझे भुलाना चाहता है।
बुझी राख है जिसमें
प्यार की आग जलाना चाहता है।
दर्द सहता छिपाता है, मुस्कुराता है
चुपके से अब आंशू बहाना चाहता है।
आया था अपनी मर्जी से जिस घर में
उसी अब निकल जाना चाहता है।
मुझसे दूर जाने की जल्दी है
बस इक अच्छा बहाना चाहता है।
वह सही है ऐसा लगता है उसे,
अब सबको यही समझाना चाहता है।
मन की मैल तो धुलती नहीं कभी
फिर भी रोज नहाना चाहता है।
✍विन्ध्य प्रकाश मिश्र विप्र