बिहारी बाबू
अखनो अखनो एहि धरती पर,
बोझिल भयले जीवन भार।
काहे से तों बिहारी बाबू,
झेले दुख केर अपार।
परदेशक रस्ता ताकि-झाकि,
सपना टूटल दिन राति ।
गामक माटि, पाइन,पोखरि,
सभ बनल,हियके अगिन।
परिजन दूर, संगती छूटल,
ममता कनहु सून पड़ल।
चुल्हा ठंढा, आँखि भरल,
धरती पर किछ मोन परल ।
कखनो ठेकवा, कखनो मज़दूर,
कखनो बाबू कहाइत भोजपात ।
पर छाती पर पाथर राखिकेँ,
सभ दरद सजीव सहाइत वानर।
अपन भाग्य लड़ाइत छिटघोपर।
धरती के बेटा, स्वाभिमान संग,
सभ दरर्दो गेले लगाइत विहार ।
काहे से हम बिहारी बाबू,
—श्रीहर्ष—