बिखरते मोती
आज फिर हरश्रृंगार ने किया सिंगार
आज फिर गुलमोहर में आई बहार
जिंदगी के इन थपेड़ों को सहने के लिए
प्रकृति का है मानव को अनुपम उपहार
जिंदगी के मायने शायद बदल गए हैं
लोग शायद एक दूसरे से दूर हो गए हैं
वो जीवन नहीं जिसके लिए लिया जनम
प्रेम और विश्वास के धागे शायद टूट गए हैं
अब तो भीड़ में जाने से भी डरता हूं मैं
महफिल में कोई बुलाए तो डरता हूं मैं
किस तरह का दौर है ये कैसा समय है
हाथ कोई थामने आए तो डरता हूं मैं
देखता हूं आसपास बिखरते संबंधों को
राग द्वेष से पल्लवित ईर्ष्यालु प्रवत्ति को
महत्वाकांक्षा की इस अंधी दौड़ में सभी ने
रख दिया हो ताक पे जैसे संबंधों को
दुख इन छोटी बातों का कभी ना करना तुम
ईश्वर की सत्ता पर भरोसा सदैव रखना तुम
यह सभी क्षणिक विकार हैं टल जाएंगे
भरोसा अपने आप पर सदैव रखना तुम
इति
इंजी संजय श्रीवास्तव
बीएसएनएल, बालाघाट, मध्यप्रदेश