बाबू जी की मुस्कान
“संध्या ने अपनी पूरी जिन्दगी घर के देखभाल और घर को बनाने में गुजार दी । मैं तो बस आफिस में चपरासी था । इस तनख़्वाह में दो बच्चों का पालन पोषण , पढाई , बीमारी सब कुछ संध्या ने संभाला ।”
इतना होने पर भी रमाकान्त की आदत हमेशा खुश रहने की
थी ।
सोचते सोचते रमाकान्त को झपकी सी लग गई।
तभी रमेश ने कहा :
” पिता जी चाय पी लीजिऐ ।”
रमाकान्त पलंग पर सिर टिका कर बैठ गये।
संध्या की तेरहवीं हो गई थी । मेहमान जा चुके थे केवल रमेश, सुरेश ही अपनी पत्नियों के साथ रूके थे
रमाकान्त की आदत थी कि जो भी रमा की चीजें थी उन्हे एक बक्से में रखते थे यादों के तौर पर ।
रमेश , सुरेश और उनकी पत्नियों को भी मालूम था कि :
” पिता जी ही माँ की चीजें इस बक्से में रखते है इसमें जेवर बैंक की जमा पासबुक भी हो सकती है ।”
रमेश और सुरेश की पत्नियां चाहती थी यह बक्सा खुल जाऐ लेकिन बाबू जी ने बक्सा नही खोला ।आखिर दोनों चले गये ।
रमाकान्त अकेले रह गए और संध्या की यादों मे दिन कांटने
लगे । वह सोच रहे थे :
” माँ बाप एक एक तिनका जोड कर घरोंदा बनाते है और जब बच्चे बडे हो जाते है तब बच्चे मा बाप का आशीर्वाद लेने के बजाय, उनको बोझ समझते है ।”
रमेश और सुरेश ने जाने के बाद रमाकान्त की कोई सुध
नही ली ।
बीच बीच में जब संध्या की याद आती तो बक्सा खोल कर उसमें रखा सामान देख लेते ।
एक दिन रमेश और सुरेश को पडोसियों से रमाकान्त के देहान्त की खबर मिली तब दोनों पत्नियों के साथ फिर आ गये। उनको उत्सुकता उस बक्से की थी जो बाबूजी ने अपने पास रखा
था।
आखिर बाबूजी के जाते हो और दोनों बेटो बहूओ ने बक्सा खोल कर देखा :
” उसमें टूटी हुई चप्पले और बाबूजी के हाथ का लिखा हुआ कागज था :
जिसमे लिखा था
” बेटा हम बहुत गरीब है और तुम लोगो को पढाने और घर चलाने के लिए तुम्हारी माँ ने घर घर बरतन माँझ कर , कपडे धो कर और रोटी बना कर, दो पैसे कमाए है , बेटा इन चप्पलो से बहुत लम्बा सफर तय किया है । सम्पत्ति के नाम पर यह दे कर
जा रहा हूँ । ”
लड़को ने माँ की चप्पलो को कूडे में फैक दिया और बड़बड़ाते हुऐ अपने अपने घर निकल गये :
” फालतू हम इतना पैसा खर्च कर के यहां आऐ , इनका अंतिम संस्कार तो पडौसी ही कर देते ।”
लेकिन बाबूजी फोटो में अपनी आदत के अनुसार अब भी मुस्कुरा रहे थे ।
स्वलिखित
लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल