बाबा नागार्जुन
यात्री उपनाम से अपनी लेखन यात्रा की शुरुवात करने वाले हिन्दी के फक्क्ड़-घुमक्क्ड कवि श्री वैद्यनाथ मिश्र उर्फ़ बाबा नागार्जुन का जन्म बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी नामक ग्राम में 30 जून 1911 को हुआ था। बाबा ने ग्राम्य-जीवन और साधारण परिवार की कथा-ब्यथा को ताउम्र जिया और अपनी कविता के माध्यम से उन परिस्थितियों को उजागर भी किया। जिस तरह श्री दिनकर जी राष्ट्रकवि के रूप में प्रख्यात हुए, बाबा नागार्जुन जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे समाजिक सरोकार की बातों या राजनीतिक गलियारों की कुत्सित बयारों को हमेसा से जनपटल के सम्मुख सीधे शब्दों में रखने को प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने स्वयं कहा –
“जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ,
जनकवि हूँ मैं, साफ कहूंगा, क्यों हकलाउ। ”
और इस पंक्ति को ताउम्र सार्थक किया बाबा ने। 1975 में आपातकाल का काला अध्याय जब भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में जोड़ा गया तब लौह महिला निरंकुश श्रीमती इंदरा जी को बाबा ने जिन शब्दों में धिक्कारा, वो उनको जनकवि और सत्य को निडर हो बोलने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त है।
इन्दू जी, इन्दू जी
क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में भूल गयी बाप को
बेटे को तार दिया
बोर दिया बाप को ?
उनके पूर्व माननीय प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी के द्वारा महारानी विक्टोरिया के आगमन पर जब उसी महारानी द्वारा लूट कर निर्धन किये गए कोष से गरीब जनता का पैसा अपब्यय किया गया तो जनकवि ने कटाक्ष किया –
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी!
बाबा नागार्जुन हिंदी कविता के महनीय कवि हैं जो जनता की समस्याओं को उनकी ख़ुशियों को उन्ही के शब्दों में बयान करते हैं। वे ऐसे रचनाकार हैं जो ग्रामीण तद्भव शब्दावली का उपयोग करते हैं तो पूरी तरह उसी के हो जाते हैं , जैसे –
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
और बाबा जब तत्स्म हिंदी में रचना करते हैं तो संस्कृत-निष्ठ शब्दों का इतना सरस समावेशन करते हैं की मन मुग्ध हो जाता है , उदाहरण के तौर पर –
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
मैथिलि में यात्री उपनाम से कविताएं लिखने वाले नागार्जुन की जनचेतना की यात्रा अनवरत जीवनपर्यन्त जारी रही। समकालीन आलोचकों ने उनके महत्व को नजरअंदाज किया क्योंकि समाजवादी धारा ने मुक्तिबोध को अधिक प्रासंगिक बना दिया। पर प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा लिखते हैं कि जब समाजवाद का भूत हिंदी कविता से उतरेगा और प्रगतिवाद तथा यथार्थवाद की पुनर्व्याख्या होगी तो नागार्जुन निःसंदेह प्रथम श्रेणी में शामिल किए जायेंगे।
बाबा नागार्जुन अपने वक्त के कवियों की प्रशंशा और गलती की आलोचना दोनों के लिए भी प्रसिद्ध हैं। महाप्राण निराला के निधन से शोकग्रस्त बाबा की उनको लिखी गयीं पंक्तिया कालांतर में बाबा के लिए भी अक्षरशः सत्य प्रतीत होती हैं –
“बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुंगी, नग्न तन
किन्तु अन्तर्दीप्त था आकाश-सा उन्मुक्त मन
उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवन
अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन…”
माँ हिन्दी के फक्क्ड़ बेटे और हम सब के प्रेरणाश्रोत जनकवि बाबा नागार्जुन को शत-शत नमन। बाबा से यहीं प्रार्थना है की अपने इस अदने से वंशज को अपने जैसा मुक्त कवि बनने का आशीर्वाद प्रदान करें।
मोहित मिश्रा