बाप
परिवार की उम्मीदें,जिम्मेदारियों का बोझ
और बदन में बेतहाशा थकान लगती है।
वो पुराने लिबास, इन बालों की सफेदी
झुलसे चेहरे में हल्की मुस्कान लगती है।
बाप की नजरो से, जरा जिन्दगी तो देखों,
कितनी मुश्किल है फिर भी,आसान लगती है।
@साहित्य गौरव
लौट कर वो आए जब शाम को घर,
तब जरुरत का जरूरी समान लगती है।
दिनभर की मेहनत इनकी खुशियों के आगे
बीवी बच्चों से थोड़ी अनजान लगती है।
बाप की नजरो से,यूं जिन्दगी तो देखों,
मुश्किल है फिर भी,आसान लगती है।
थी छोटी सी फिर भी ये घास की कुटिया
इसके कमाने से पक्का मकान लगती है,
हो बेशक भले इन दीवारों में रंग सस्ते,
पर दीवारों की रंगत,आलीशान लगती है।
बाप की नजरो से,यूं जिन्दगी तो देखों,
मुश्किल है फिर भी,आसान लगती है।
पुरजोश है वो अब भी इस ढलती उमर में,
उसके हाथों की ताकत,नौजवान लगती है।
खुद की फिकर अब उसे होती कहां है,
नर्म तबियत भी उसकी सख्त जान लगती है।
बाप की नजरो से, यूं जिन्दगी तो देखों,
मुश्किल है फिर भी,आसान लगती है।
आज बदलते वक्त की ये बदलती जरूरतें
कल भविष्य का बेहतर अनुमान लगती है,
खुद ही बनाएं,अपनी तकदीर जो खुद से,
मेहनतकश आदमी की पहचान लगती है।
आदमी की नजरो से, यूं जिन्दगी तो देखों,
बाप है फिर भी,आसान लगती है।
@साहित्य गौरव