**बात बनते बनते बिगड़ गई**
**बात बनते बनते बिगड़ गई**
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वो बात बनते बनते बिगड़ गई,
जुल्फ गालों पर आ अटक गई।
बात उन से मेरी न हो सकी,
शाम ढलते-ढलते निकल गई।
रात जाने को है सितारों भरी,
जान हाथों से मेरे फिसल गई।
नैन नीले से हैँ आसमानी बड़े
लाज आँखों से मेरी उतर गई।
चाह मनसीरत की सदा से हमें,
छाँव परछाई की है पसर गई।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)