*बात पनघट की*
ब्रज भाषा में एक रचना ….!
(पनघट पर एक नारी अपनी सखी से कह रही है अपने मन की बात । संदर्भ पुराना है ।गीत भी पुराना है ।अब तो पनघट ही नहीं रहे …….)
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बात पनघट की
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हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।
अबकै बहना सूखौ परि गयौ ,
कैसी परवी परी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।
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बैल बिकौ जब ब्याज चुकायौ ,
भैंस बेच कै नाज मँगायौ ,
भूखी गाय रँभावै कहाँ ते लाऊँ चरवी हरी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।1
–
दूध बिना रोवै है ललना,
छाती फटै परे है कल ना,
छोरी इक्कीसी पै आई आँख कंकरी परी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।2
–
राम निठुर है गयौ हमारौ,
काऊ कौ नाँय नैक सहारौ,
तीन दिना ते ताव बलम कूँ दवा न दारू करी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।4
–
बालक तरसैं हैं टूकन कूँ,
कैसै धीर धराऊँ मन कूँ,
रूखी हलक न चलै चपटिया गुड़ की रीती धरी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।5
–
कोउ मठा भी अब नाय देवै,
फटकारै गारी दै लेवै ,मुसकिल है गयौ जीनौ बहना ,जिंदी हूँ ना मरी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।6
–
साहुकार कौ सम्मन आयौ,
संग सिपाही झम्मन लायौ,
सिगरी धरती कुड़क भई ई कैसी बिजुरी परी ।
हँसुलिया मेरी गिरवी धरी ।।7
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-महेश जैन ‘ज्योति’
मथुरा ।
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शब्दार्थ…..
हँसुलिया-गले का आभूषण, परवी-विपत्ति,
चरवी-हरा चारा,ललना-बेटा, ताव-बुखार , चपटिया-घड़ा , रीती-खाली, बिजुरी-बिजली