बात ! कुछ ऐसी हुई
बात !
कुछ ऐसी हुई;
बंद कर ली आँख,
कानों में रुई.
खेत से
आँखें चुराई
मेड़ ने
भेड़ियों की
बात मानी भेंड़ ने
फिर झुकाई आँख
खाईं में मुई.
कौन जाने
किस तरफ़
कोहराम है ?
भोर की खिड़की में
बैठी शाम है,,
भीत सहमे पाँख
बूँदें मन चुई..
सर खुजाती
चंपियों में
मस्त हम
पुतलियों की
डोर से हैं हस्त हम
हाथ में है चांख
आँखों में सुई…
जो कहें वे
मात्र वो ही
सत्य है
पक्ष के ही
पक्ष में अनुप्रत्य है
गुदगुदी में काँख
आँहें अनछुई …
– अशोक शर्मा ‘कटेठिया’