बाजार आजकल
जीना हुआ है अब तो यूँ दुश्वार आजकल।
मँहगा है किस कदर यहाँ बाजार आजकल।
हिंसा की आग में यूँ जला जा रहा शहर,
यह सोचना कि कौन है मुख्तार आजकल।
अब राजनीति करने लगे .सब हिसाब से,
कुछ लोग ही बने हैं सुबेदार आजकल।
गैरों से खूब रिश्ते निभाये ही जा रहे ,
अपनों के बीच में है यूँ दीवार आजकल।
खा-खा के ठोकरें यूँ भरोसा ही खो दिये,
दिखते सभी यहाँ तो यूँ बीमार आजकल।
रोटी ने दूर कर दिया अपनों से अपनों को,
बिखरा हुआ है घर मेरा परिवार आजकल
जेबों पे है पड़ा डाका कोई करें भी क्या,
फीके हुए सभी यहाँ त्यौहार आजकल।
अब आदमी ही आदमी से दूर हो चला,
कितना यहाँ बदल गया व्यवहार आजकल।
कैसे सुधा ये सह ले सितम कोई इस तराह,
पत्थर लिए खडे़ं हैं जो तैयार आजकल।
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
स्वरचित सृजन
2/7/2022
वाराणसी