बांझ
सुमन गर्म कपड़ो का संदूक खोले कितनी देर से बैठी थी। बेटे का पुराना लाल स्वैटर झटककर पहन लिया था दूर से आई एक आवाज , मां कार बनाना इस पर , सुमन की ऊंगलिया मुस्कुरा उठी थी। कंधो पर झूल गया उसका आलिंगन स्वैटर में सिमट गया। अहसासो का समुद्र आंखो से बह निकला। अब क्या कुछ यादें बस। कितनी बार फोन पोछती सुमन , बार बार देहरी बुहार आती सुमन की खाली नज़र।
जाने क्यूं आज पार्वती की बरबस ही याद हो आई थी। संग ही तो शादी हुई थी उसकी भी। जब मैके जाती , मां उसके बांझ होने की बाते बताती। ससुराल वालो के ताने और फिर पार्वती का हमेशा के लिये मायके आ जाना। कभी मिलती भी तो आंख चुरा जाती जैसे कोई अपराधिनी।
सोच रही है सुमन ,आज मेरे पास क्या। क्या मैं भी बांझ नहीं!!!!!