बहला जाती हो
शांत सुरमयी सांझ मन्त्र मुग्ध हो जब मुस्कराती है
तुम नदिया के तीरे आ कर , मन मेरा बहला
जाती हो
जब चलती मन्द पवन , ताल घुघरुओं की आती है
हाथों में हाथ पकडे दूर , जहां को हम छोड जाते है
विधु आगोश में ले धरा को , राग प्रेम का तुम गाती हो
अपने केशों की छांव मे ले , स्वप्न लोक ले जाती हो
जब निकुंजों में लहराए लतिकाए, कोकिल कूंजन करती है
भंवरे नित आकर पुष्प रस चूँसे , आलिंगन कलियों करती है
ऐसे आना तेरा मन को मेरे , न जिने क्यों छूँ जाता है
तान वितान अपनी प्रीती का , मौन भाव कह जाती हो