बलात्कार कब तक, क्या समाज आज भी उसी रूढ़िवादी में है
बात आज से 5 से 6 महीने की पहले की ,जब हम मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल और नार्थ ईस्ट के कुछ इलाकों में घूम रहे थे , और नजर सिलीगुड़ी में एक दुकान पर गयी ,tv में उस दौरान निर्भया जैसे मामलों की सुनवाई चल रही थी , हम बड़े ध्यान से देख रहे थे , लेकिन मेरे जेहन में एक बात कब्र बना रही थी
“” यह बलात्कार क्यो और कब तक चलेगा ” । खैर दोस्त ने कहाँ छोड़ ना यार हमे यहां से काम खत्म कर जल्द निकलना है , और दूसरे मिशन की तैयारी करनी है । गुस्सा तो बहुत आया , लेकिन कर भी क्या सकते हैं । लेकिन उसकी कवायद आज तक जेहन में बनी रही , कोशिशे की महिलाओ को शिक्षित किया जाय , एक अच्छे दोस्त से कहा की ” लड़के अपने लिए पढ़ते हैं , लड़िकयां अगर पढ़ेंगी तो सात पीढ़ी पढ़ लेगी । ” पता नही उसे समझ आया की नही आया ।
ख़ैर मुद्दा ये था –
बलात्कार मानव सभ्यता के विकास के उन तमाम दावों को झुठलाता हैं जहाँ मानवीय गरिमा को निर्विवाद माना गया है ।अपने स्वरूप में घृणित होने के साथ साथ यह अपने प्रभाव में और भी अधिक घृणित है । अर्थात अन्य घटनाओं में इतर इसमें पीड़ित को ही सामाजिक बहिष्कार समेत अन्य तमाम प्रकार की समस्या झेलनी पड़ती है । बलात्कार सिर्फ शारीरिक बल द्वारा किया गया यौन दुराचार नहीं है ,बल्कि इसके दायरे में वे तमाम यौन शोषण आते हैं जिन्हें किसी दवाब के कारण किया जा रहा होता है ।दरसल ,बलात्कर एक जटिल फिनोमना है और अलग अलग बलात्कार की घटनाओ के पीछे कुछ समान और कुछ भिन्न कारण काम करते हैं ।
आज की नारी जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कुछ करिश्मा कर दिखाने की चाह रखती है । उसमें छटपटाहट है आगे बढ़ने की ।
वह अपनी अथाह मेहनत से और लगन से एक सशक्त इबारत लिखने के लिए बेताब हैं । अर्थात —-
” कोमल है कमजोर नही तू , शक्ति का नाम ही नारी है।
जग को जीवन देने वाली , मौत भी तुझसे हारी है । ”
मुझसे कोई पूछे कि नारी क्या है तो मैं सिर्फ ” जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कामायनी में ” नारी तुम केवल श्रद्धा हो ” कि कुछ पंक्तिया गुनगुना सकता हूँ —-
“”नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।
आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा ।”””
मुझे आज भी उन कविताओं के कुछ पंक्तिया याद है जो चीख कर बलात्कार के प्रसंग को रचती है –
” झूठ नही बोलेंगी हवाए ,
झूठ नही बोलेगी पर्वत शिखरो पर बची हुई थोड़ी सी बर्फ ,
झूठ नही बोलेंगे चिनारों के शर्मिन्दा पत्ते उनसे ही पूछो
सुमित्रा के मुँह में चिथड़े ठूसकर उसे कहाँ तक घसीटती ले गई उनकी जीप अपने पीछे बांध कर “”।
खैर हरियाणा, दिल्ली ,मणिपुर , और बस्तर में हुई बलात्कार की घटनाओ को एक तरीके से नही समझा जा सकता । इसी तरह ,पिता, चाचा, मामा, भाई या पड़ोसी द्वारा किया गया बलात्कार अलग समझ की मांग करता है ।अमीरों द्वारा गरीब महिलाओं से बलात्कार में ठीक वह कारण काम नही करते जो किसी गरीब गरीब द्वारा किसी अमीर महिला से बलात्कार के मूल में होते हैं । यह भी नही भूलना चाहिए कि बलात्कार सिर्फ महिलाओं, लड़कियों, बच्चीयों, के साथ नही होता , छोटी उम्र के लड़कों, तृतीयलिंगियो और पशुओं के साथ भी होता है। इस विविधता से इतना स्पष्ट है कि बलात्कार के मूल में यौन इच्छा की आक्रमकता एक कारण , के रूप में भले ही मौजूद हो पर वास्तव में यह न अकेला कारण है और न ही सबसे महत्वपूर्ण । इसलिए बेहतर है , की इनके लंबे जड़ो पर ही चोट किया जाय ।
पहले इस प्रश्न पर गौर करना अधिक समीचीन होगकी उत्तर पूर्व के मातृसत्तात्मक समाजो की तुलना में हरियाणा , पंजाब, राज्यस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे प्रान्तों में बहुत ज्यादा बलात्कार क्यो होते हैं ? दरसल यह कानून व्यवस्था से ज्यादा समाज और संस्कृति का मसला है । इसकी जड़ें पुरुषवादी समाजिक संरचना या पितृसत्ता में धंसी है ।ऐसे समाज मे बच्चो की परवरिश की प्रक्रिया लिंग भेद के मूल्यों पर टिकी होती हैं ,जिसकी वजह से बचपन मे ही यौन आक्रमता के बीज पड़ जाते हैं ।
उद्धाहरण के तौर पर लड़को को बचपन से ही बन्दूक, तीर कमान ,तलवार, जैसे ‘मर्दाना’ खिलोने दिए जाने का परिणाम यह होता है कि इन हथियारों के मूल में बसी हिंसा की भावना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगती है । उनके साहस ,लड़कूपन,आक्रमता,शारीरिक मजबूती जैसे लक्षणो की प्रशंसा की जाती हैं , और विनम्रता ,संवेदनशीलता
अनुभूति प्रवणता जैसे गुणों का मज़्क़ उड़ाया जाता है। किसी लड़को की आंख से दो बूंद आंसू बह जाए तो उसे “लड़की” कह कह कर उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता हैं । उसे घर के काम करने के लिये प्रोत्साहित नही किया जाता क्योकि उन कामो के लिए माँ- बहने है ही और बाद में पत्नी होगी । उसे ” राजा बेटा” कहकर संबोधित किया जाता है जबकि बेटी के लिए इसका समतुल्य सम्बोधन व्यवहार में नही आता ।
ऐसी परवरिश से वह खुद को औरत का मालिक समझने लगता है। जिस तरह उसकी माँ उसके पिता की गुलामी झेलती हैं , वैसे ही वह भी पत्नी के रूप में गुलाम की खोज करता है ।वह पत्नी को तथाकथित आर्थिक सुरक्षा देकर बदले में उसकी आजादी ही नही छिन लेना चाहता ,बल्कि उसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करने का हक भी हासिल कर लेना चाहता है। वह शादी करता है तो घोड़ी पर बैठकर और तलवार टांग कर , जैसे कि युद्ध लड़ने या अपहरण करने जा रहा है ।लड़की की घरवाले भी कन्यादान करते ह, मानो उसे कोई वस्तु सौप रहे हो ।
सुहागरात के कोमल अवसर पर भी लड़का युद्ध जीतने के मूड में रहता हैं । वह साबित कर देना चाहता है कि उसने पत्नी के शरीर को भोगने के मुक्त लाइसेंस हासिल कर लिया है। कुछ समुदायों में तो प्रथा है कि सुहागरात की सेज पर बिछाई गई सफेद चादर पर अगर सुबह लाल धब्बे न मिले तो लड़के के पुंसत्व पर संदेह किया जाता है। यौन संबंध के लिए पत्नी की सहमति इन समुदाय के पुरुषों की कल्पना से परे की वस्तु है । पत्नी का बलात्कार उनका दैनिक विवाहसिद्ध अधिकार बन जाता हैं । औरतो के प्रति लम्बे समय से संचित यही दृष्टिकोण जब सड़को पर उतरता है तो ‘बलात्कार’ कहलाता है ।
एक दिन मैं एक बेवड़े इंसान से मिला था , उससे काफी हँसी मज़ाक करने के बाद कुछ पंक्तिया मेरे जेहन में रह गयी —
” बलात्कर किये जाने और सीमेंट के खड़े जीने से धकेल दिये जाने में कोई फर्क नही , सिवाय इसके की उस हालात में भीतर भीतर रिसते है ज़ख्म ,
बलात्कार किये जाने और ट्रक से कुचल दिए जाने में कोई फर्क नही , सिवाय इसके की उसके बाद मर्द पूछता है -“”मजा आया ??”. “”
मुझे यह पहेली समझ ही नही आई ,की उस बेवड़े ने क्या कहा ।
खैर यह एक अजीब सा सच है कि बलात्कार की अधिकांश घटनायें घर परिवार के भीतर या आस पड़ोस में घटती है ।ये घटनाएं तात्कालिक यौन तनाव का परिणाम न होकर लम्बी योजना का परिणाम होती हैं । इनमे से अधिकांश मामले तो कभी सामने आ ही नही पाते क्योकि शिकायत करने पर औरत को ज्यादा नुकसान होता है । गौरतलब है कि पितृसत्तात्मक समाज मे औरतो की पूरी जिंदगी इस बात पर टिकी होती है कि उसका पति और परिवार उसे बेघर न कर दे ।
अर्थात स्त्री की यह विवशता हो गई हैं कि वह परिवार जैसे संस्था पर आश्रित रहे ,भले ही इस संस्था से उसके शोषण को वैधता मिलती हो । लड़कियों को आमतौर पर न शिक्षा मिलती है, न ही पैतृक संपत्ति में हिस्सा । राज्य की ओर से कोई ठोस समाजिक सुरक्षा उन्हें नसीब नही है ।उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा जुआ यही है कि उन्हें कैसा पति और कैसी ससुराल मिलेगी ? इसलिए बेटी की परिवरिश का मूल मंत्र यही है कि कैसे उसे बेहतर पति के लायक बनाया जाय? बलात्कार ऐसा ही एक खतरा है जो लड़की की सारी भावी जिंदिगी को बर्बाद कर सकता है ।हमारा समाज स्त्री की पवित्रता उसके शरीर से तय करता है , मन से नही ।
वह बलात्कर को स्त्री के साथ हुई एक साधरण दुर्घटना के रूप में नही लेता , बल्कि उसे विवाह और सामाजिक सम्बधों से बेदखल कर देता है ।औरत जिसके पास समाजिक सुरक्षा का एक मात्र विकल्प परिवार है , इतना बड़ा खतरा मोल नही ले सकती । इसलिए बलात्कार हो भी जाये तो अधिकांश मामले में वह न तो शिकायत करती हैं ,न ही पलटकर जबाब देती है ।धीरे धीरे वह सब कुछ सहन कर लेने की आदि हो जाती हैं । उद्धाहरण के लिए , मुस्लिम समाज मे महिलाओं का हलाला ,तलाक , आदि , कुछ केस में शाह बनो मामला, मुख्तारन माई मामला , आदि मामले यह जो बेहद दर्दनिय है ।
दूसरे स्तर पर बलात्कार एक दमनकारी करवाई की भूमिका के रुओ में सामने आता है । इस भूमिका में इसका इस्तेमाल किसी परिवार या समूह को नीचा दिखाने या उससे बदला लेने के लिए होता है । देखा जाय तो लड़को के द्वारा दी जाने वाली गालिया आमतौर पर दुसरो की माँ और बहन के बलात्कार करने की धमकियां ही होती है । सीधी सी बात है कि किसी की मां (लगभग उस उम्र की महिला) के प्रति यौन आकर्षण तो इसका कारण नही हो सकता । तो फिर ऐसी गालिया किस ओर इशारा करती है? इस प्रश्न का उत्तर इस बात में छिपा है कि हमारे समाज ने औरतो की यौन शुचिता को घर की इज्जत का प्रतीक बना दिया है ।( मद्रास उच्च न्यायालय judgment 2017) .
किसी घर या समुदाय की इज्जत तार तार करनी हो तो उसकी औरतो का बलात्कार करने सबसे सरल उपाय समझा जाता है। उद्धाहरण के लिए “फूलन देवी” का गैंगरेप योनिक नही ,जातीय दमन का मामला था । सम्प्रदायिक दंगो के दौरान हमेशा दबंग समूह कमजोर समूह के महिलाओं का बलात्कार करते हैं ,चाहे वह गुजरात का मामला हो ,या दिल्ली के निर्भया के मामला ।
अगर बलात्कार के आकड़ो को गहराई से देखे तो पाएंगे कि अधिकतर मामले में सिर्फ यौन क्रिया का मामला न होकर दोहरे या तिहरे दमन का मामला होता है । इस दमनकारी करवाई के प्रतीक के कारण ही ऐसे बलात्कर में बात यौन क्रिया तक ही सीमित नही रहती ,बल्कि उससे आगे बढ़ जाती है । कई लोग क्रूरता से औरतो का अंग भंग कर देते हैं ,तो कुछ अप्राकृतिक सेक्स तथा मार पीट करके नोच डालने की कोशिस करते हैं ।यह सब इसलिए होता है कि दूसरा समुदाय डर जाय।
यूँही रास्ते पर गुनगुनाते कुछ पंक्तिया बन गयी —-
“बलात्कारी तुम्हारे प्रेमी का भाई है
वह सिनेमाघर में बैठता है तुमसे सटकर पॉपकार्न खाता हुआ,
बलात्कार पनपता है सामान्य पुरुष के कल्पनालोक में ,जैसे कूड़े के ढेर पर गोबरैला ,
बलात्कार का भय एक शीतलहर की तरफ बहता है हर समय चुभता किसी औरत के कूबड़ पर “”।
हम जानते हैं कि शहरों में मीडिया और इंटरनेट की सघन उपस्थिति “यौन अभिव्यक्तियो ” मुख्यतया “पोर्न” को सहज उपलब्ध बना देती है । वैसे तो पोर्न हर युग मे रहा है पर आज का ” ऑडियो विजुअल पोर्न”प्रभाव पैदा करने में अपनी सानी नही रखता । देशी विदेशी पोर्न की सहज उपलब्धता किशोरों और युवाओं , विशेषत: लड़को को उसका दीवाना बना देती है । वे रात दिन नए यौन अनुभवों की कल्पना में डूबे रहते हैं । टी वी पर दिखाए जाने वाले कई विज्ञापन उनकी यौन इच्छाओ को गैर जरूरी टूर पर भड़कते है । यह बात विशेष रुप से परफ्यूम ,कॉन्डम तथा अंडरवियर आदि के विज्ञापनों में दिखती है, जिनमे सुंदर लड़कियों का भयानक वस्तुकरण होता है । फिल्मो में आइटम सॉन्ग तथा अन्य कामुक दृश्य भी यौन इच्छाओं को उतेजित करते हैं । ये सारे दृश्य उन युवाओं के अवचेतन मन पर धीमे धीमे असर डालते रहते हैं । पोर्न साइट्स , वेबसिरिज देख देख कर वे अपनी इच्छित प्रेमिकाओं की छवियां गढ़ते है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ एक ओर युवाओ पर इन यौन प्रतीकों का आक्रमण बाद रहा है ,वही करियर बनाने की प्रतिस्पर्धा भी कठिन हुई हैं जिसके कारण विवाह की औसत उम्र लगातार बढ़ती जा रही है । आज का समाज इतना भयावह हो गया है कि , मित्रो या किसी के दबाब से इस यौन कुंठा जैसी बीमारी से जो सम्मोहित और मदहोश करती है , इसे नही बच सकते हैं । आये दिन सड़को पर अच्छी अच्छी महिला को देखकर पास नयन सुख लेते हैं । बस सार यह है कि हम यौन इच्छाओं के विस्फोट के युग मे रहते हैं । हमारे समय के लोगो की जितनी रुचि यौन अनुभवों या यौन आकांक्षाओ में है ,उतनी शायद कभी नही थी । यह भूख साधारण और नैसर्गिक नही ,इसका काफी बड़ा हिस्सा बाजार ,फिल्मो ,गीतों और पोर्न द्वारा रचा गया है ।
जब हम महानगरों में एक फ़क़ीर जैसे झोले के लेकर रात्रि के बीते हुए एक प्रहर लगभग 1 या 2 बजे घूमते तो यह पता चलता था कि , लाखो लोग रोजगार की तलाश में अपना घर बार छोड़कर आते हैं । ये रिक्शा ,बस ,ऑटो चलाते हैं ,या मजदूरी ,चौकीदारी जैसे बोझिल और और थकाऊ काम करते ह। इनकी आय इतनी कम होती हैं कि आमतौर पर ये पत्नी और परिवार को अपने साथ नही रख पाते । इन्हें न पारिवारिक आत्मीयता नसीब होती है, न ही गृहस्थ प्रेम की कोमल और गुलाबी दुनिया । इनका काम इतना बोझिल होता है कि वह सृजनात्मक सतोष नही दे पाते । । मेडिकल साइंस के कुछ लोगो द्वारा प्रतिपादित इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो “टेस्टोस्टेरोन” नामक हार्मोन पुरषो में यौन आक्रमकता पैदा करता है ,वह तनाव ,असंतोष और गुस्से के कारण जन्म लेता है , यह इतना तेज उदीप्त होता हैं कि इसके पास विकल्प होता है कि कही वैश्या के पास चले , किसी 5 स्टार होटल में ,या किसी रेड लाइट एरिया में जाकर अपनी गर्मी शांत कर ले । नही तो यौन खिलौना (sex toys) से अपनी संतुष्टि पूरा करले , लेकिन यह यह गैर कानूनी है । और इनसभी प्रतिबन्धों के कारण वह दिमाग मे बोझिल लिए रहता है । जब कभी उन्हें कोई आकर्षक लड़की या महिला दिखती तो उनका मन बुरी तरह जोर मरता है , पर आसपास के माहौल का डर हर बार भारी पड़ता है ।ऐसी हर विफलता नारी देह के प्रति इन्हें ज्यादा भूखा और बीमार बना देती है । यही कारण है कभी कोई लडक़ी इनके जाल में फंस जाती हैं तो मामला सिर्फ यौन क्रिया तक नही रह जाता । उसके बलात्कार के बहाने वो हर पिछली प्यास बुझा लेना चाहता है ।उसकी देह को नोच नोचकर हर पुरानी हर का बदला ले लेना चाहते हैं । उसकी हर चीख इनके कुठित मन को गहराई तक सतुष्ट करती है।
ज्यादातर बलात्कार का कारण समाजिक दबावों की अनुपस्थिति में भी छिपी है ।बलात्कार के अधिकांश अपराधियो को यह भय नही होता कि उनका परिवार और समाज उनका बहिष्कार कर देगा । सामंती समाज मे लड़के द्वारा किये गए बलात्कार को क्षम्य माना जाता है । कुछ लोग तो उसको प्राकृतिक न्याय कहकर भी मुक्त हो जाते है ।
कानून के भय का अनुपस्थिति होना भी बलात्कार का एक स्पस्ट कारण है । अपराधियों को पता होता है ,की कानून व्यवस्था बहुत लचर है और उनका कुछ बिगाड़ नही सकती । आदलतो में हमेशा यह साबित कर दिया जाता है कि यौन सम्बंध में लड़की की सहमति शामिल थी । आरोपियों के वकीलों का प्रसिद्ध ,परम्परागत और घटिया तर्क है कि अगर सुई हिलती रहै तो उसमें कोई धागा कैसे डाल सकता है ?
रूसो के अनुसार ” औरत की मर्जी के बिना कोई यौन संबंध नही बना सकता । पुलिस कर्मचारी प्रायः सामंती समाज से ही आते हैं और वे इसे बहुत चिंताजनक कृत्य नही मानते ।
वे खुद लड़की को समझते हैं कि मामले को रफा दफा करने की कोशिश करे ,क्योकि उसके लिए ऐसे मामले में पड़ना ठीक नही है। सरकारी वकील केवल सुविधाओं और इच्छाशक्ति से वंचित रहते हैं । अगर कोई आरोपी अमीर है तो यूको वकीलों के सामने वे टिकने की ताकत नही रखते । कई मामलों में वे आरोपियों से पैसा लेकर खुद ही मामले को कमजोर बना देते हैं
। न्यायाधीशो में महिलाओं की संख्या बेहद कम है । कानून के प्रवधान भी कमजोर है। अधिकांश मामलों में आरोपी जमानत पर छूटकर बाहर घुमते है और शिकायत करने वाली लड़की दूसरी दुर्घटना के भय में जीती है । कानूनी प्रक्रिया बेहद लंबा और थका देने वाला है। वह बलात्कार से ज्यादा प्रताड़ित करती हैं ।अदालतो के पास न्यायाधीश और अन्य सुविधाएं कम होने के कारण मुकदमे कई कई साल तक लटके रहते है। उसके बाद हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं। वहां भी सजा हो जाये तो राष्ट्रपति से दया की अपील का प्रवधान है। यह सब होते होते न्याय का गला पूरी तरह घुट चुका होता है ।
(उद्धाहरण निर्भया मामला )
अतः —
“पढा गया हमको जैसे पढ़ा जाता है कागज बच्चो की फटी कापियों का चना जोर गरम के लिफाफे के बनने से पहले ,
भोगा गया हमको बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा ‘ हम भी इंसान हैं ‘
हे परमपिता परमपुरुषो बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो।
( कठुआ मामला)