“बरसाने की होली”
नन्दगाँव कौ पँडा आयौ, लै सँदेस बरसाने,
आवन कौ हैं कान्हँ, जु होरी खेलन होत दिवाने।
फूटत लड्डू मनहिं, राधिका बनत न कछू कहाने,
सतरंगी मुस्कान अधर, कहँ लेकिन जगहिँ छुपाने।
ग्वाल बाल सँग पहुँचि कन्हाई, जानत सबहिं ठिकाने,
लीलाधर की बात न्यारि, सब ज्ञानीजन भरमाने।
भाँति भाँति कै स्वाँग रचे, कोउ गर्दभ मुखन लगाने,
कोउ लिपटाय भभूत, किलोलन करत कोउ मस्ताने।
कोउ बजाय मृदँग, फाग कै निकसत कहूँ तराने,
छेड़त सखियन कोउ, ढिठाई करि करि लगत चिढ़ाने।
दीसत ना कहुँ कान्हँ, राधिका सोचत कछु सकुचाने,
भाँपि लियो नंदलाल, मुखौटन फेँकि, रूप दरसाने।
लै हाथन माँ लठ्ठ, खूब होरियारन पै जु चलाने,
अब भाजत ना बनै, करौ कौतुक कैतौ को माने।
कछु समझत नहिं बूझि बनै, राधिका तनिक हिचकाने,
भरि पिचकारी मारि, भीजि अँगिया, सब गोरि लजाने।
लाल भई, कोउ पीरि, लगी कोउ रँग हरित दरसाने,
सब तैयारी रही धरी, कँह काहु कोउ पहिचाने।
उड़त अबीर-गुलाल, जमुन तट, कहँ यह दरस सुहाने,
चढ़ि कदम्ब बाँसुरी बजावत, मोहन मन मुस्काने।
कारि-गोरि कौ भेद मिट्यो, हरि अद्भभुत पाठ पढ़ाने,
धन्य श्याम की होरि, देवगन लागि सुमन बरसाने..!
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