बरवै छंद
बरवै छंद के प्रणेता अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना ‘रहीम’ कहे जाते हैं। किंवदन्ती है कि रहीम का कोई सेवक अवकाश लेकर विवाह करने गया। वापस आते समय उसकी विरहाकुल नवोढा पत्नी ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाए रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर दीं। रहीम का साहित्य-प्रेम सर्व विदित था सो सेवक ने वे पंक्तियाँ रहीम को सुनाईं। कहा जाता है कि वे पंक्तियाँ निम्नवत थीं-
प्रेम-प्रीति कौ बिरवा, चले लगाइ।
सींचन की सुधि लीजो, मुरझि न जाइ।।
इन पंक्तियों को सुनकर रहीमदास जी चकित रह गए। पंक्तियों में उन्हें ज्ञात छंदों से अलग गति-यति का प्रयोग था। सेवक को ईनाम देने के बाद रहीम ने पंक्ति पर गौर किया और मात्रा गणना कर उसे ‘बरवै’ नाम दिया। मूल पंक्ति में प्रथम चरण के अंत ‘बिरवा’ शब्द का प्रयोग होने से रहीम ने इसे बरवै कहा। रहीम के लगभग 225 तथा तुलसीदास जी के 70 बरवै हैं। विषम चरण का बारह मात्रा-भार भी ‘बरवै’ नामकरण का आधार माना जा सकता है। सम चरण के अंत में गुरु लघु (ताल या नन्द) होने से इसे ‘नंदा’ और दोहा की तरह दो पंक्ति और चार चरण होने से ‘नंदा दोहा’ कहा जाता है।
रहीमदास जी ने इस छंद का प्रयोग कर ‘बरवै नायिका भेद’ नामक ग्रन्थ की रचना की तथा गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति ‘बरवै रामायण’ में भी इसी का प्रयोग किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा जगन्नाथ प्रसाद ‘रत्नाकर’ आदि ने भी इसे अपनाया। उस समय बरवै रचना साहित्यिक कुशलता और प्रतिष्ठा का पर्याय था। दोहा की ही तरह दो पद, चार चरण तथा लय के लिए विख्यात छंद नंदा दोहा या बरवै लोक काव्य में प्रयुक्त होता रहा है।
बरवै एक अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसके विषम चरण (प्रथम, तृतीय) में बारह-बारह तथा सम चरण ( द्वितीय, चतुर्थ) में सात- सात मात्राएँ रखने का विधान है। सम चरणों के अन्त में जगण (जभान = लघु गुरु लघु) होने से बरवै की मिठास बढ़ जाती है। बरवै को अवधी का मूल छंद माना जाता है किंतु यह बाध्यकारी नहीं है। कोई भी छंद किसी भी भाषा में रचा जा सकता है। यदि कवि के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। विषम चरणों के अंत में यदि तगण ( ताराज- दीर्घ दीर्घ लघु) का प्रयोग किया जाता है तो छंद रचना अत्यंत सरल हो जाता है और छंद के माधुर्य में भी अंतर नहीं आता। जगण का प्रयोग विशेष प्रयास की अपेक्षा रखता है।
मात्रा बाँट-
बरवै के चरणों की मात्रा बाँट 8+4 तथा 4+ 3 है। छन्दार्णवकार भिखारीदास ने बरवै छंद को परिभाषित करते हुए लिखा है-
पहिलहि बारह कल करु, बहरहुँ सत्त।
यही बिधि छंद ध्रुवा रचु, उनीस मत्त।।
छंद प्रभाकर में भानु कवि ने बरवै छंद को स्पष्ट करते हुए लिखा है-
विषमनि रविकल बरवै, सम मुनि साज।
कुछ बरवै छंद-
शारदे वरदायिनी, हंस सवार।
आ विराजो कंठ माँ, हो उद्धार।।1
विनती सुनो मम मातु,दे दो ज्ञान।
सिखा दो करके कृपा,छंद विधान।।2
अभिलाष उर यह आस,रचना छंद।
खुशियाँ मिले पढ़ जिन्हें,नर को चंद।।3
नेता जी सुभाष चंद्र बोस के जन्म दिवस पर कुछ बरवै छंद –
जन्म दिवस मना रहा,जिनका देश।
वे प्यारे हैं सुभाष ,सैनिक वेश।।1
नेता जी चलते थे, सीना तान।
रग रग में बसता था, हिंदुस्तान।।2
आजादी के बदले , माँगा खून।
सिर पर था बस उनके, एक जुनून।।3
उनकी चिंता केवल,सबकी मौज।
आजादी हित उनकी,खुद थी फौज।।4
आज़ाद हिंद सेना, उसका नाम।
अंग्रेजों से लड़ना,जिसका काम।।5
नारा दिया जिन्होंने, था जय हिंद।
और दहाड़े शेरों, की मानिंद।।6
दिल्ली चलो आज भी, सबको याद।
देश इन्हीं यत्नों से, है आज़ाद।।7
डाॅ. बिपिन पाण्डेय