बदल रहा है गांव
नव युग में नव तरह से, बदल रहा है गाँव।
आधुनिक चेतना हुई, रंग-रूप पहनाव ।।
टावर चिमनी बन रहे , खोया पीपल छाँव।
सब जन मिलते थे जहाँ, रहा नहीं वह ठाँव।।
बचा नहीं छप्पर कहीं , गौरैया का ठौर।
हरियाली सब मिट रही, हुआ मशीनी दौर।।
चैता, कजरी, फागुआ, सबके सब खामोश।
युवा- वर्ग में अब नहीं, पहले जैसा जोश।
बिजली सड़कें आ गई, मोबाइल औ’ नेट।
खेत गया किसान का ,पूंजी पति की भेट ।।
सुख-सुविधाएं बढ़ रहीं , बदला कृषि आधार।
नई योजना नाम पर, जेब भरे सरकार।।
घर-घर टीवी चल रहें, सूनी है चौपाल।
कुटिल स्वार्थ के चक्र में, रहा नहीं गोपाल।।
फसे सियासी दाँव में, रिश्ते- नाते प्यार।
रहे नहीं अब गाँव में, वे संस्कार दुलार।।
जहर घुला है खेत में, सूख रहें हैं ताल।
नित कर में डूबा हुआ, है किसान बेहाल।।
नित विकास के नाम पर, ये कैसा बदलाव।
कृषक जनों में बढ़ रहा,हर दिन एक तनाव।।
जाने कैसा दौर है, रही नहीं अब शर्म।
सही गलत समझे नहीं, भूले अपना धर्म।।
रही नहीं पंचायतें, टूट रहा परिवार।
नित दिन बढता जा रहा, शोषण अत्याचार।।
गैरों जैसा आचरण, झूठा सब व्यवहार।
खड़ी उठाये शीश है, आँगन में दीवार।।
अब अपनापन खो रहा, रिश्ते नाते टूट।
काकी ताई का रहा, सब संबोधन छूट।।
हुआ मशीनीकरण सब, हुनर नहीं है हाथ।
कैसे शब्दों में कहूँ, गया गाँव का साथ।।
ताना-बाना बुन रहा, शहरी चारों ओर।
मानव प्रकृति को यहाँ, रहा व्यर्थ झकझोर।।
पंछी की कलरव नहीं, नहीं खेत खलिहान।
धीरे-धीरे गाँव अब, लगने लगा विरान।।
–लक्ष्मी सिंह