बदला हुआ ज़माना है
वफ़ा मिले न मिले फिर भी मुस्कुराना है
यहाँ सभी से मुझे प्यार अब निभाना है
प्रतीक शांति के हैं जो सफेद हारिल उन
कबूतरों को फलक पर हमें उड़ाना है
मिले उन्हें भी तो पढ़ने को घर के आँगन में
जो ज्ञान हीन हैं आगे उन्हें बढ़ाना है
मचा रहे है यहाँ लोग अब भी शोर-ओ-गुल
ये जिन्दगी का अजब सा हुआ फ़साना है
न बोझ दिल पे रहे आँख में नमी न रहे
मिले हैं ज़ख्म जो उनको यहीं भुलाना है
तलाशते हैं दिनों रात अब जमीं अपनी
रहें मिसालों में कुछ ऐसा कर दिखाना है
ये बात कहती हूँ अपने सभी बुज़ुर्गों से
चलें सँभाल के बदला हुआ ज़माना है
जो देखे इसको वही वाह वाह कह उठ्ठे
हमें बसाना सुधा ऐसा आशियाना है
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
8/11/2022
वाराणसी ,©®