बदलते मानवीय मूल्य, घटती संवेदनशीलता !
बदलते मानवीय मूल्य, घटती संवेदनशीलता !
– डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”
जन्म से मनुष्य एक जैविक प्रक्रिया का परिणाम है और सजीव जगत की सर्वोत्तम प्रजाति की चरम परिणति है । सतत् विकास के परिणाम स्वरूप मनुष्य ने शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक उत्कृष्टता प्राप्त कर, सुंदर और सुव्यवस्थित मानव समाज का निर्माण किया है । तरक्की के रास्ते अपनाते हुए अनेक नव निर्माण किए हैं और जीवन के सभी क्षेत्रों में चरम सीमा तक पहुंच सुनिश्चित की है। धरती से आकाश-पाताल तक, देश-देशांतर तक, सूरज-चांद-सितारों तक; समुद्र की गहराई से पृथ्वी के आर-पार तक; दिक्-दिगांतर तक सब कुछ शोध कर लिया है और हर परिस्थिति पर अपना अधिकार भी सिद्ध कर दिया है। सृष्टि की उत्पत्ति के सभी सिद्धांत अपनी मर्जी से ढाल कर, मनुष्य पूर्णतः प्रकृत्ति पर हावी होने की फिराक में है। अनुसंधान , विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ ही भीषण तकनीकी जंजाल में तरक्की कर, आज बहुत खुश हो रहा है – मानव । मगर ! वह , यह भूल रहा है कि उसने क्या-क्या खो दिया है ? प्रतिद्वंद्विता और प्रतियोगिता में उलझकर मानवता के मूल और पर्यावरण- पारिस्थितिक-तंत्र-संतुलन को स्वार्थ की बलि वेदी तक ले आया है। जलवायु परिवर्तन , विविध आपदा , कार्बन-उत्सर्जन एवं संग्रहण , ओजोन परत क्षरण एवं जैवविविधता संकट जैसे भौगोलिक समस्याओं का मूल भी मानव ही है ।
वर्तमान में वह जीवन के गूढ़ रहस्यों को भूल रहा है अथवा उनसे जान बूझकर अनजान बनने का नाटक कर रहा है , क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को यह पता है कि हमारा जीवन पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों और सतत् संतुलित विकास पर ही निर्भर है; अन्यथा ऐसा कोई तकनीकी जादू नहीं है जो इस पेचिदा जगत को जीवन का आधार दे सके ! ऐसा कोई विज्ञान भी नहीं है; जो प्रकृति से इतर हो ! जीवन वही है जो प्राकृतिक है , वरना तो मशीनी कार्य प्रणाली है ! बहुत अफसोस है कि मनुष्य अपने विनाश के ढेर पर बैठा, सुखद जीवन के हवाई किले बना रहा है। तरक्की और खुशहाली के रास्ते प्रकृति-पर्यावरण-जैवविविधता के “स्वर्णिम त्रिकोण” से ही होकर गुजरता है । अन्यथा सबकुछ कोरा भ्रम मात्र है। प्राकृतिक संसाधनों का अप्राकृतिक दोहन, सुख और समृद्धि की कामना से जीवनोपयोगी चीजों का दुरुपयोग , एक दिन संपूर्ण मानव समाज के लिए घातक साबित होना है।
वर्तमान में मानव एक अलग ही दुनिया में खोया हुआ है जो महज छलावा है। उच्च कोटि के जीवन की मृगतृष्णा में, सुखद जीवन के सभी श्रेष्ठ मार्ग छोड़ कर, तत्काल एवं आभासी घटनाओं के प्रति लगाव तथा लुभाव को ग्रहण कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है , क्योंकि वर्तमान में सोशल मीडिया भी एक प्रकार का आभासी और मिथ्या जगत ही है , जो युवाओं के ब्रह्म-तत्व (यथार्थ ज्ञान) पर पूर्णत: अनावरित हो चुका है । इस आवरण के कारण सोशल मीडिया का मायावी संसार ही उनके लिए यथार्थ, असंदिग्ध और सत्य है । आभासी संसार के जाल में पूर्ण रूप से फंसकर संस्कार , सद्गुण और राष्ट्रभक्ति जैसे मूल्यों का कोई औचित्य नहीं रह गया है और ये इसी आभासी दुनिया के नीचे गहराई में दफन हो चुके हैं । यही कारण है कि मानवीय संवेदनाओं के स्तर में निरन्तर गिरावट जारी है ।