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28 Mar 2024 · 10 min read

बड़ी कथाएँ ( लघुकथा संग्रह) समीक्षा

समीक्ष्य कृति: बड़ी कथाएँ ( लघुकथा संग्रह)
लेखक: डाॅ बलराम अग्रवाल
प्रकाशक: विजय गोयल, इंग्लिश-हिंदी पब्लिशर, दिल्ली-32
संस्करण: प्रथम, फरवरी ,2024
मूल्य: ₹ 150/- (पेपरबैक)
बड़ी कथाएँ : अभिव्यंजना में डूबती-उतराती लघुकथाएँ
डाॅ बलराम अग्रवाल हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम हैं। आपका सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘बड़ी लघुकथाएँ’ है। इस संग्रह में कुल 65 लघुकथाएँ हैं। इन सभी लघुकथाओं के अंत में नीचे सर्जना की तिथि एवं काल भी अंकित है। इस संग्रह की समस्त लघुकथाएँ 12/12/2020 से 02/02/2024 कालखंड के मध्य रची गई हैं। मात्र एक लघुकथा ‘उसका जाना’ ऐसी है जिसमें 03/07/2015 तिथि अंकित है। पिता-पुत्र और गधे की कहानी उर्फ 21वीं सदी का प्रबुद्ध पंचतंत्र, 44. खारा पानी और 63.कुशल प्रभारी ऐसी लघुकथाएँ हैं जिनमें लघुकथाओं के काल एवं रचनातिथि का उल्लेख नहीं है। साथ ही 41. ‘सुरंग में लड़कियाँ’ एक ऐसी लघुकथा है जिसका रचनाकाल 01/08/2021से 13/12/2023 है अर्थात इस लघुकथा को पूर्ण होने में 2 साल 4 माह और 13 दिन लगे। यह इस बात का परिचायक है कि लघुकथा भले ही आकार में लघु हो लेकिन उसका सृजन आसान नहीं होता। जिस भाव एवं विचार को लेखक पाठकों तक पहुँचाना चाहता है या जिस संवेदनात्मक तनाव से वह गुजर रहा होता है ,उसको जिस रूप में वह अभिव्यक्त करना चाहता है और नहीं कर पाता है तो वह तब तक उसके अंदर आलोड़ित होता रहता है , जब तक वह पूर्णरूपेण पक नहीं जाता और बाहर आने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो जाता।
इस कृति की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें प्राक्कथन के स्थान पर एक लेख – ‘लघुकथा: सृजन और चुनौतियाँ’ को स्थान दिया गया है। इससे सुधी पाठक एवं आलोचक दोनों को इस बात को समझने में मदद मिल सकेगी कि किस भावभूमि पर इस संग्रह की लघुकथाएँ आधृत हैं और इन लघुकथाओं के सृजन के लिए किन चुनौतियों का सामना किया है। डाॅ बलराम अग्रवाल जी का मानना है कि ‘समकालीन लघुकथा के संदर्भ में सृजन और विचार के द्वंद्व से विकसित ‘एप्रोच’ नयी रचनाशीलता को जन्म दे रही है।’ और यह नयी रचनाशीलता ‘बड़ी कथाएँ’ में स्पष्टतः परिलक्षित हो रही है।
इस संग्रह की पहली लघुकथा है ‘तलाश’ जो कोरोना महामारी और उसके कारण उत्पन्न वीभत्स और भयावह स्थिति को व्याख्यायित करती है। उस समय अनेक लोग ऐसे थे जो असमय काल-कवलित हो गए और उन्हें सम्मानजनक अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ। कितने ही लोग ऐसे थे जिनको ऐसे ही नदियों में प्रवाहित कर दिया गया। कुत्ते और जंगली जानवर उन्हें नोचते-खसोटते दिखाई देते थे। सरकार और प्रशासन को जिस तरह से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना चाहिए था, वह नहीं किया। लघुकथा स्पष्ट करती है कि ” इन दिनों वह अक्सर ही ,ठहर-ठहर कर बहती ,गाँव किनारे की गंगा में जा उतरतीं। उसमें तैरते शवों को दोनों हाथों से दाएँ-बाएँ हटाकर बीचोंबीच पहुँच डुबकी लगातीं। कुछेक पल नीचे रहकर परेशान-सी ऊपर आतीं। तैरते शवों के बीच रास्ता बनाती हुई उस पार जा निकलतीं।” यह ,वे दृश्य हैं जिनकी चर्चा उस समय टीवी और अख़बारों में आम थी। कहानी की अम्मा जी कहती हैं “मसल नहीं रही, सरकार को ढूँढ रही हूँ। उसका कोई रेशा ,काश मेरी हथेली पर महसूस हो जाए।” “पता नहीं, पानी में जा डूबी है, पता नहीं मिट्टी में मिल गई है।” सरकार के नकारा और निकम्मेपन को उजागर करने का यह तरीका डाॅ बलराम अग्रवाल जी जैसे मँजे हुए कथाकार का ही हो सकता है।
संग्रह की कहानी ‘तीसरा आदमी’ लाॅकडाउन के समय शहरों से अपने-अपने गाँवों की ओर पलायन करते लोगों की पीड़ा को उकेरा गया है। यह जानते हुए कि यदि गाँव-घर में काम होता तो रोज़गार की तलाश में शहर क्यों आते। जिसको जो साधन मिला ,उसीसे लोग गाँव की तरफ निकल पड़े थे। कुछ ऐसे भी थे, जो हज़ारों किलोमीटर की यात्रा बूढ़े और बच्चों के साथ पैदल ही तय करने के लिए मजबूर थे। चूँकि अब गाँव में पहले जैसा खेती-बाड़ी का काम नहीं रहा। मशीनीकरण के प्रभाव से समस्या बढ़ी है। किंतु लेखक ने कहानी का समापन बड़े रोचक अंदाज में करते हुए उसे जनसंख्या नियंत्रण से जोड़ दिया है। समाज का एक वर्ग ऐसा है जो बच्चों के जन्म को ऊपर वाले से जोड़कर देखता है। लेखक ने लिखा है “ऊपर वाले के निजाम में दखल देने का हक किसी भी इंसान को नहीं दिया जा सकता।”
पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को संस्कारित करने और उनका मार्गदर्शन करने के प्रयास में लगे रहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि ये कम्प्यूटर युग के बच्चे हैं। इनके पास वह एक्सपोजर है जिससे हर तरह के ज्ञान और जानकारी के रास्ते उपलब्ध हैं। ‘तलाश’ लघुकथा एक ऐसी ही बात की तरफ संकेत करती है। आदिका अपने दादू से पूछती तो है कि वह कागज पर स्केच की मदद से क्या बनाए , पर सोचती है वह दादू से कई कदम आगे की बात। इसीलिए वह कहती है- “दादू ,देखो- मैं पेड़ बनाऊँगी। पेड़ पर फूल आएँगे। फूल पर तितली आएँगी।” यह न केवल लेखक के युगबोध को दर्शाता है अपितु नई पीढ़ी की तरफ से एक आश्वस्तिकारक संकेत भी है कि वह भी पर्यावरण को लेकर उतनी सजग है जितना कि पुरानी पीढ़ी के लोग।
नई तकनीक और अंतर्जाल के यदि कुछ फायदे हैं तो नुकसान भी हैं। अनेक सोशलमीडिया प्लेटफॉर्म से ऐसे-ऐसे लोग जुड़े होते हैं जो अपनी उम्र का भी लिहाज नहीं करते और महिलाओं से अभद्र और अश्लील बातें करते हैं। कुछ महिलाएँ भी ऐसी होती हैं जो पुरुषों के साथ बेटी या बहन का रिश्ता न रखकर उन्मुक्त उड़ान भरना चाहती हैं। ‘नदी से नेह’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें लेखक ने लिखा है “अंतर्जाल पर सभी मछलियाँ बहन-बेटी कहलाना पसंद नहीं करतीं। जिनकी आँखों में यह जैसी रुचि देखता है, उनके लिए बेहिचक नदी में कूद पड़ता है।” लेखक ने आगे स्पष्ट किया है कि “यही तो। एक्वेरियम में उतार लेने का मजा अलग है, नदी में कूद पड़ने का अलग। नदी से मन-आत्मा-देह सब तृप्त हो जाती है, एक्वेरियम से क्या!” जिस सांकेतिक तरीके से डाॅ बलराम अग्रवाल जी ने अपनी बात को पाठकों से सामने रखा है,वह काबिलेतारीफ है।
उपनाम या तखल्लुस रखने की परंपरा साहित्य के क्षेत्र में बहुत पुरानी है। उपनाम रखने से व्यक्ति के अंदर लेखन कौशल विकसित हो जाता है या यह लेखन के क्षेत्र में पहचान बनाने का कोई टोटका है। यह बात समझ से परे है। लेखक ने इसी पर कटाक्ष करते हुए ‘मनोहर से बातचीत’ लघुकथा लिखी है। लेखक ने पात्रों के बातचीत के क्रम में दिलीप कुमार जिनका असली नाम यूसुफ था और गुलज़ार साहब का जिक्र किया है जिनका वास्तविक नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। हिंदी में लिखने वाले उर्दू शब्द को तखल्लुस के रूप में प्रयोग करते हैं और उर्दू में लिखने वाले हिंदी के शब्द को जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक नाम जो घर के बड़े -बुजुर्गों ने रखा है ,उसको प्रयोग करते हुए किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
समझौतावादी और पलायनवादी प्रवृति मनुष्य के लिए सदैव घातक होती है। विशेषतः तब ,जब आप किसी मुसीबत में होते हैं और दूसरा व्यक्ति आपकी मदद करना चाहता है। वह आपकी मदद करने के लिए कदम भी उठाता है और आप अपना पैर पीछे खींच लेते हैं। ‘मुर्दे बतियाते हैं’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें बस में एक व्यक्ति महिला से छेड़खानी करता है एक व्यक्ति जो उसकी नापाक हरकतों को देख रहा था, जब वह उसका विरोध करता है तो वह दुष्कर्मी बोलता है “जब उसे तकलीफ नहीं है तो तुझे क्यों मिर्ची लग रही है? मैंने कहा- वह विरोध नहीं कर पा रही, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे तकलीफ नहीं है। वह बोला- तू एक बार इससे कहला दे कि इसे मुझसे तकलीफ है। इतने में कोई बस स्टाॅप आ गया और अपना न होते हुए भी लड़की तेजी से वहीं उतर गई। ” इस तरह की स्थितियाँ न केवल व्यक्ति को असहज करती हैं वरन कई बार खतरे का सबब भी बन जाती हैं।
कई बार हम संबंधों की वास्तविकता को समझने में असफल हो जाते हैं। हम अपने रिश्तों को अपने आस-पास घट रही घटनाओं या कहानियों की कथावस्तु के आधार मूल्यांकित करने का प्रयास करते हैं। ‘बालकनी में धूप’ एक ऐसी लघुकथा है जो दो भाइयों के संबंधों की अंतरंगता को आलोकित करती है। बड़ा भाई जो माँ के साथ एक ऐसे घर में रहता है ,जहाँ धूप की समस्या है। माँ को विटामिन डी की कमी के कारण धूप की जरूरत है और बड़े भाई को मूत्ररोग के कारण बार-बार कपड़े धोकर सुखाने पड़ते हैं पर घर में धूप तो आती ही नहीं है। छोटे भाई ने नया चार कमरों का एक फ्लैट खरीदा है जिसके दो तरफ बालकनी है। आधा दिन एक बालकनी में धूप रहती है और आधा दिन दूसरी बालकनी में। जब खुश होकर छोटा भाई, बड़े भाई को यह बात बताता है तो उन्हें लगता है कि छोटा भाई जलाने आया है। परंतु स्थिति इसके बिल्कुल उल्ट थी। दोनों मियाँ- बीवी बड़े भाई और माँ को अपने साथ ले जाने के लिए आए थे। “अपने और माता जी के चरणों से उसे पवित्र कीजिए।
हमारे साथ, वहीं रहिए- सुधा राजेश।” बड़ा मार्मिक अंत है लघुकथा का ,जो हमें यह सोचने के लिए विवश करता है कि अभी भी समाज में ऐसे लोग हैं जो रिश्तों को अहमियत देते हैं।
कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने से प्रायः साहित्यकार बचते रहते हैं लेकिन डाॅ बलराम अग्रवाल जी एक ऐसे साहित्यकार हैं जो समाज के लिए जरूरी सभी मुद्दों पर बेबाक तरीके से लिखते हैं। इसका एक नमूना इस संग्रह की लघुकथा ‘विलाप’ है। इससे पूर्व लेखक की कृति ‘काले दिन’ के अध्ययन के क्रम में भी मैंने इस बात को महसूस किया था। यह सामाजिक सरोकार का गुण प्रत्येक कवि या लेखक में नहीं होता। लघुकथा ‘विलाप’ का एक संवाद द्रष्टव्य है- ” कुछ खास नहीं, “लेकिन दादा बताया करते थे कि वह हिंदू थे और …।” “यानी जिस तख्त को तुम अपने परदादा का बता रहे हो, वह असलियत में उनके परदादा का था।”
दहेज प्रथा एक बहुत पुरानी सामाजिक बुराई है। इस मुद्दे पर बहुत कुछ लिखा भी गया है। परंतु जब डाॅ बलराम अग्रवाल जी ने इस मुद्दे पर अपनी लेखनी चलाई तो पूर्णतः नवीनता के साथ। ‘लालची लोमड़’ एक ऐसी ही लघुकथा है। बात भले ही दो दोस्तों के मध्य मजाक के रूप में की गई थी परंतु यह हास-परिहास समाज की परतों को उघाड़कर कुत्सित सच्चाई को लाने में सफल रहा है।
देश क्या है? एक नागरिक की दृष्टि में देश की क्या महत्ता है? इस बात को बड़े अनोखे अंदाज में लेखक ने उठाया है। निश्चित रूप से वे लोग जो आए दिन तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करते रहते हैं, वे देश के दुश्मन से कम नहीं। कारण ,स्पष्ट है हम अपने शत्रुओं से तो सावधान रहते हैं, उनकी हरकतों पर भी ध्यान रखते हैं पर जो आस्तीन के साँप बने बैठे हैं उनकी हरकतों को नजरअंदाज करते रहते हैं। आज लोगों के अंदर देश के प्रति वह भाव नहीं रहा ,जो देश की आजादी के समय लोगों के अंदर हुआ करता था। इसीलिए लेखक को कहना पड़ा है, “किस देश के ? मासूमियत से पूछा उसने, फिर कहा,” देश तो वह था,जिसकी आजादी के लिए लड़े थे सब मिलकर।” “देश” लघुकथा का यह संवाद यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि आज लोगों के अंदर वह देश-प्रेम का भाव नहीं रहा जो स्वाधीनता संग्राम के समय हुआ करता था।
आज भी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपनी कठिनाई को भूलकर दूसरों की मदद को हमेशा तत्पर रहते हैं। “अति सूधो..” लघुकथा में लघुकथाकार ने एक ऐसे ही बालक का चित्रण किया है जो अपने पिता जी मृत्यु के पश्चात घर का भरण-पोषण करने के लिए गुब्बारे बेचता है और अपनी छोटी बहन जैसी एक बच्ची को गुब्बारा देता है और अपनी माँ को हिसाब देते समय उससे झूठ बोलता है। जब उस छोटी बच्ची की माँ मदन को गुब्बारे देने से रोकती है और कहती है “तुम भी तो मोल के ही लाते होगे न!” तो गुब्बारे बेचने वाले मदन ने उस बच्ची की माँ से कहा- ” कोई बात नहीं आंटी, मदन उससे बोला, “दरअसल इतनी ही छोटी मेरी भी एक बहन है।उसे कभी कुछ दे नहीं पाता हूँ, इसलिए….” किसी की मदद करने या उसके प्रति अपनापन जताने के लिए आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति का सम्पन्न होना जरूरी नहीं होता,अपितु मदन की तरह उसको बड़े दिल वाला होना चाहिए।
भले ही हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और थोड़ा-बहुत पढ़ लिख भी गए हैं पर अभी तक संस्कारित नहीं हो पाए हैं। राह चलते महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़खानी आम बात है। ” मानस जात” एक ऐसी लघुकथा है जिसमें एक पति-पत्नी रोजाना सुबह सैर पर निकलते हैं। पति अपनी पत्नी की रक्षा के लिए सैर पर जाते समय एक दो फुट लंबा शीशम का डंडा लेकर जाते हैं और इसका कारण पूछने पर कहते हैं- “पत्नी के लिए नहीं, आवारा जानवरों को उससे दूर रखने, उन्हें डराने-धमकाने के लिए!” आगे वे कहते हैं “तुम्हें सिर्फ चार पैर वालों में जानवर नजर आता है! बहुत अफसोस की बात है?” यह आज के तथाकथित शिक्षित समाज की एक कड़वी सच्चाई है।
समग्रतः दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि ‘बड़ी कथाएँ’ की प्रत्येक लघुकथा न केवल हमें जागरूक और प्रेरित करती है अपितु अपने कथ्य की मारकता से मन में बेचैनी का भाव पैदा करती है। यह बेचैनी का भाव केवल मुट्ठी भींचकर चुप रहने वाला नहीं है वरन कथाओं के अपने प्रतीकों, बिम्बों और भाषा के मुहावरे के साथ लड़ने के नए हथियार निर्मित करता है। प्रायः इस संग्रह की लघुकथाओं में ब्यौरों भरमार नहीं है। प्रत्येक विचार और बिंब, संवेदनात्मक तनाव से उद्देश्य तक पहुँचता है। कृति की लघुकथाओं की भाषा सहज-सरल और बोधगम्य है। किसी भी भाषा की शब्दावली को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं है। केवल संप्रेषणीयता को आधार बनाकर ही शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इस संग्रहणीय और पठनीय कृति के प्रणयन के लिए आदरणीय डाॅ बलराम अग्रवाल जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ! आप इसी तरह हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहें।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय

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