बच्चों में नहीं पनप रहे संस्कार
विद्यार्थियों में गिरते जीवन मूल्य
जीवन मूल्य गिर रहे हैं आज
बच्चों में नहीं पनप रहे संस्कार ।।
कहते हैं जो विद्यार्थी शिक्षक का सम्मान नहीं करते उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होता लेकिन यह बात अब आई- गई सी लगती है । आज विद्यार्थियों में गिरते मूल्यों का एक मुख्य कारण उनके स्वयं के अभिभावक और उनका अपने बच्चों के प्रति स्नेह है । ऐसा इसलिए है क्योंकि आज समाज में संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवारों की परंपरा है जिसमें एक या दो बच्चे हैं । परिवार में बड़े बूढ़ों का साथ में न होना और माता – पिता का कामकाजी होना बच्चों में घटते नैतिक मूल्यों का कारण हैं क्योंकि संस्कारों की प्राप्ति का प्रथम स्थान घर होता है । बच्चे में संस्कार, आचार – विचार, व्यवहार सभी का बीजारोपण परिवार से ही होता है । मगर आज परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हैं बच्चों को वह सब कुछ प्राप्त नहीं है जो तीन चार दशक पूर्व हुआ करता था । ऐसा इसलिए क्योंकि माता – पिता दोनों कामकाजी होने के कारण बच्चों पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते । दादा – दादी जिनकी छत्र – छाया में बच्चे पलते थे ऐसा वातावरण एकल परिवार होने के कारण नहीं मिल पाता । इसीलिए वर्तमान में विद्यालयों एवं शिक्षकों पर पढ़ाई के साथ – साथ उन सभी मूल्यों को प्रदान करने का कार्य भी आ गया है जो बच्चों को परिवार से प्राप्त होते थे । कारणवश बच्चों में संस्कारों की कमी साफ दिखाई देती है । आज बच्चे अपने माता – पिता का और विद्यार्थी अपने गुरुजनों का सम्मान नहीं करते ।
प्रताड़ित आज विद्यार्थी नहीं समस्त शिक्षक हैं; जो देश का भविष्य निर्माण करते हैं । यह बहुत ही संवेदनशील विषय है क्योंकि अक्सर हम विद्यार्थियों की प्रताड़ना की बात करते हैं कभी हमने उन शिक्षकों के बारे में नहीं सोचा जो उन्हें ज्ञान का अथाह सागर प्रदान करते हैं । आज ऐसी स्थिति आ गई है कि भय के कारण शिक्षक सिर्फ़ नौकरी करते हैं विद्यादान नहीं ; क्योंकि बच्चों में निम्नस्तर पर मूल्यों का ह्वास होता जा रहा है । संस्कारों का तो दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही नहीं इस स्थिति के जिम्मेदार स्वयं बच्चों के माता-पिता हैं क्योंकि आज प्रत्येक घर में एक या दो बच्चे हैं और वह घर के दुलारे हैं जिस कारण माता-पिता उनकी हर गलती पर पर्दा डालते हैं । आज मूल्यह्वास के कारण बच्चों का नजरिया भी शिक्षकों और शिक्षा के प्रति बदलता जा रहा है । अध्यापक उनकी नज़र में कोई मायने नहीं रखते क्योंकि सरकार ने ही ऐसा सिस्टम बना दिया है कि विद्यार्थियों को कुछ न कहा जाए । उन्हें न ही मानसिक और न ही शारीरिक प्रताड़ना दी जाए । सरकार के इस फैसले की मैं सराहना करती हूँ मगर इससे बच्चों में भी एक ऐसे बीज का रोपण हुआ है जिसके कारण वह अपनी गलती पर पर्दा डाल देते हैं और शिक्षकों को दोषी करार दे देतेे हैं ; यहाँ तक कि माता-पिता भी बच्चों के इस तरह के व्यवहार और कार्य में अपनी सहमति जताकर बच्चों को एक ऐसी राह देते हैं जो उस समय तो उन्हें सही लगती है मगर उन्हें यह अनुमान ही नहीं हो पाता कि भावी जीवन के लिए वह अपने ही बच्चे को अंधे कुएँ में डाल रहे हैं , जिसमे गिरकर राह पाना असंभव है ।
बच्चों के प्रति किसी भी प्रकार के दंड के साथ कोई भी शिक्षक सहमत नहीं होगा और न ही हो सकता है क्योंकि एक गुरू अपने शिष्यों के प्रति माता- पिता जैसा भाव रखता है । घर में भी बच्चों की गलती पर अभिभावक बच्चों को डांटते और कभी-कभी मार भी देते होंगे तो जब एक शिक्षक बच्चों के सुधार हेतु कोई सकारात्मक कदम उठाता है तो उस पर प्रतिक्रिया क्यों होती है । आज का विद्यार्थी गुरू का सम्मान नहीं करता क्योंकि कहीं न कहीं उनके माता-पिता भी गुरूओं का सम्मान करते नजर नहीं आते । यथार्थ में अब स्थिति ऐसी हो गई है कि शिक्षा देना सेवा का कार्य न रह कर नौकरी तक ही सीमित हो गया है । जहाँ विद्यार्थी का कार्य पढ़ने का और अध्यापक का कार्य पढ़ाने का रह गया है । यही संबंध दर्शाता है कि आदर और आदर्श कहीं धूमिल हो गए हैं । आज बच्चों में नैतिक चरित्र का ह्वास इसी कारण हो रहा है क्योंकि उनका उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करना नहीं 12वीं कक्षा पास करना है । इस प्रकार की सोच यह चिन्हित करती है कि बच्चों में किसी के प्रति आदर सत्कार नहीं है न ही शिक्षा और न ही शिक्षक । स्कूलों में विद्यार्थी शिक्षक को ज्ञानदीप दीपक नहीं एक खिलौना समझते हैं जो कि उनके इशारों पर चलता है । वह अध्यापक जो उन्हें पसंद नहीं , जो उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है , जो उनके माता-पिता को बातचीत करने के लिए और उनके परिवर्तित व्यवहार के विषय में जानकारी देने के लिए स्कूल में बुलाता है उसके खिलाफ बच्चे माता-पिता को स्कूल पहुंचने से पहले ही भड़का देते हैं परिणाम स्वरुप शिक्षक की शामत आ जाती है और समाधान कुछ नहीं निकलता । जो अध्यापक विद्यार्थी को सकारात्मक रूप से आगे बढ़ाने की कोशिश करता है वही विद्यार्थी उसकी अवहेलना कर उसको शर्मिंदा करवाता है । आज अध्यापक और विद्यार्थी का संबंध एकलव्य और द्रोणाचार्य वाला नहीं रहा । विद्यार्थी आज अपने खिलाफ एक शब्द नहीं सुनते बल्कि अध्यापक को ही अपमानित कर दोषी बना देते हैं ; यही कारण है कि आजकल के बच्चों में धैर्य और संयम नहीं है । संस्कारों और ज्ञान के अभाव के कारण ही आजकल की संताने बिगड़ैल संतानों की श्रेणी में रखी जाती हैं । देश में जितने भी अत्याचार पनप रहे हैं जिसमें छोटी-छोटी बच्चियों के साथ गलत व्यवहार हो रहा है , शिक्षक को शिक्षक नहीं सेवक समझा जाता है , बड़े-बूड़ों का अपमान होता है, बच्चों में सोचने समझने की शक्ति नहीं है ,सोच संकीर्ण होती जा रही है , माताओं बहनों का आदर नहीं है यह इसलिए है क्योंकि उन्हें (बच्चों ) ज्ञान प्राप्त हो ही नहीं रहा, अच्छे संस्कारों का आभाव और अनुशासनहीनता के कारण शालीनता दिखाई नहीं देती इसमें चाहे लड़का है या लड़की दोनों में झूठ बोलने, बातों को घुमा फिरा कर बदलने की आदत आती जा रही है ।
मौजूदा दौर की मांग है कि बच्चों के अभिभावकों को जानकारी देकर उन्हें बच्चों के कार्यों से अवगत कराया जाए । आज सभी विद्यालयों में यही नियम और प्रक्रिया अपनाई जाती है । दंड चाहे किसी भी प्रकार का हो मानसिक या शारीरिक… प्रतिबंधित है और होना भी चाहिए मगर एक गंभीर समस्या यह उत्पन्न हो गई है कि अगर बच्चों के माता-पिता को शिक्षक बातचीत के लिए बुलाता है तो स्कूल पहुँचने से पहले ही बच्चे माता-पिता को कुछ भी शिक्षक के विषय में बता कर अपनी गलती पर पर्दा डाल देता है और माता पिता बच्चों की बात सुनकर एक तरफा निर्णय लेकर स्वयं भी शिक्षक को गलत ठहराते हैं एक बार भी अध्यापक से बच्चे की गलती पूछने की कोशिश नहीं करते हैं बच्चों में गिरते मूल्यों का यह एक बहुत ही बड़ा कारण है जिसका परिणाम हमारी भावी पीढ़ी संकीर्ण सोच वाली बनती जा रही है । मैं इसे मानसिक रुग्ण अवस्था नाम दूँगी । अगर मैं चार दशक पहले की बात करूं तो उस समय ऐसे हालात नहीं थे तब कक्षा में शिक्षक की छड़ी और गाल पर चपत को दंड नहीं माना जाता था वह अनुशासन का हिस्सा हुआ करता था जिसमें शिक्षक की अपने विद्यार्थी के प्रति सद्भावना ही रहती थी खास बात तो यह है कि कोई भी दंडित विद्यार्थी अपने माता – पिता को अपने दंड से संबंधित कोई बात नहीं बताता था क्योंकि बच्चों को अपनी गलती का स्वयं एहसास हो जाता था और इस भय के कारण कि घर पर बताने से अभिभावकों से भी दंड मिलेगा क्योंकि उस समय आज जैसा माहौल नहीं था शिक्षक को ईश्वर का दर्जा प्राप्त था और कोई भी अभिभावक यह सोच भी नहीं सकता था कि शिक्षक ने उनके बच्चों को किसी दुर्भावना से पीटा होगा मगर आजकल तो बच्चों को प्यार से समझाने पर भी अगले दिन अभिभावक पूरा बोरिया बिस्तरा उठा कर विद्यालय प्रशासन और शिक्षक को ही दोषी ठहराते हैं । उस समय की बात कहूँ तो बिगड़ैल बच्चों के अभिभावक कई बार तो खुद स्कूल जाकर शिक्षकों से कहते थे कि उनके बच्चे के साथ सख्ती बरती जाए आज माहौल बदल गया है बच्चों के यह बताते ही कि शिक्षक ने उसे गाल पर या कमर पर मारा है या फिर कुछ शब्दों के माध्यम से कुछ कह दिया है अभिभावक बिना समय गँवाए शिक्षक पर कानूनी कार्यवाही कर देते हैं । बहरहाल, इसका प्रभाव शिक्षण और संस्थानों के अनुशासन, बच्चों के व्यक्तिगत व्यवहार और शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर दिख रहा है । देंखे तो अब न पहले जैसे विद्यार्थी हैं न ही अभिभावक जो गुरु को भगवान समझते थे और विद्यालय को मंदिर …??
समय के साथ – साथ जीवन मूल्यों में परिवर्तन हमारी संस्कृति पर गहरा प्रहार है यह सही संकेत का सूचक नहीं है । स्थिति सुधार हेतु हम सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे तभी हम अपनी संस्कृति को बचा पाएंगे और अपने बच्चो में आदर्श एवं सुसंस्कृत जीवन मूल्य स्थापित कर पाएंगे ; नहीं तो आधुनिकता की दौड़ में हमारा भविष्य ( आने वाली पीढ़ी ) मार्ग भटक जाएगी ।