“बच्चे को बच्चा ही समझे”
किसी ने सच कहा है “बच्चों को बच्चा ही समझे” बडो जैसी अपेक्षाए पालना उनकी कोमलता के साथ निरर्थक ज्यादती ही होगी।
शिक्षा के निजीकरण के कारण दिखावेपन की होड नजर आने लगी है । बच्चे के मानसिक तनाव को कम करने का कोई विकल्प नजर नही आ रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हाल ही मे चेताया है कि कुछ नियम बाया जायेगा जिसमे दो तक के बच्चों को बस्ता नहीं ढोना पड़ेगा। यह एक सराहनीय पहल है। सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम अनुसार बस्तों से हल्के हैं पर निजी संस्थान लोलुपता के कारण इसका पालन नही करते। सरकारी स्कूलों में प्रारंभिक कक्षाओं में भाषा, गणित के अतिरिक्त एक या दो पुस्तकें हैं। लेकिन निजी स्कूलों के बस्तों का भार बढ़ता जा रहा है उसके पीछे शिक्षा का व्यवसायीकरण दोषी है।
अंग्रेजी स्कूलों की हालत यह है कि एक भारी भरकम बैग थमा देते है। जिससे वार्षिक फायदा निकाल लिया जाता है। ।इसतरह बच्चों के मन-मस्तिष्क पर बेवजह बोझ लादा जा रहा है। माता-पिता भी होमवर्क की चक्की में पिस रहे हैं। बच्चो को उनकी रुचि क्षमता जाने बिना ही शिक्षा थोपी जाती है । यह सुकोमल मन पर ज्यादती है। फिर कमाल की बात है कि बच्चे के घर आने के बाद कोचिंग के हवाले कर दिया जाता है । रटने से बच्चों के मस्तिष्क की दुरुपयोग होता है ।वह केवल कक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए रटते है ।भाव तो समझाए ही नही जाते। अभिभावको को जानना जरूरी है कि अमुक प्रकरण का जीवन में क्या उपयोग है । इससे अनभिज्ञ होने के कारण ही आगे चलकर बच्चा बेरोजगार हो जाता है या शिक्षा निष्प्रयोजन हो जाती है ।इससे अभिभावकों को बचना चाहिए ।
बच्चों की कोमलता को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षा की व्यवस्था करें । बच्चों को बच्चा ही समझते हुए अपेक्षा रखे। और बचपन बचाएं।
विन्ध्यप्रकाश मिश्र विप्र