बचपन
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
पुराना जमाना हाँ पुराना जमाना रे
बड़ी – बड़ी बातें हम खूब बतियाते थे
दोस्तों से मार खाते उनको भी लतियाते थे
हल्की सी चोट पर जोर से चिल्लाना रे
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
साइकिल की डंडी पर गमछा लगाते थे
बाबू जी आहिस्ते से उसपे बैठाते थे
घर और बाजार के बीच दुनियाँ दिखाना रे
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
साइकिल बाबू जी की लंगड़ी चलाते थे
कभी गिर जाते, कहीं जाके भिड़ जाते थे
साइकिल चलाने खातिर चोट का छिपाना रे
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
रोक – टोक कम थी कहीं भी चल जाते थे
जैसा माहौल मिला वैसे ढल जाते थे
अब तो हो पाता नहीं कभी मनमाना रे
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
सपने में ढेर सारे बिस्कुट और टाफी थी
गलती कुछ भी हो जाए मिल जाती माफ़ी थी
अब तो लग जाता है गलती पे जुर्माना रे
ढूंढ़ के ला दो कोई बचपन पुराना रे
-सिद्धार्थ गोरखपुरी