बचपन रोता-मुसकाता है
जब भी जाता गाँव, दौड़कर
बचपन मेरा आता है।
सुबक-सुबक भीगी आँखों से
मुझको गले लगाता है।
वह छप्पर-छजनी का घर
मुझे अब भी वहीं बुलाता है।
जाऊँ जब भी, गोदी में सिर
रखकर मुझे सुलाता है।
वह ब्रह्मथान, वह माईथान !
वह पीताम्बर बाबा का दर,
तेलिया, सँपदेवी पुरन बाबा
तजेया (ताज़िया), झंडा घूमना घर-घर !
भनसाघर का चौका-चूल्हा
नेनू – कद्दू की तरकारी
होठों पर हाय ! अहा ! ही है.
आँखों में चिपकी सिसकारी ।
यहाँ, शहर में जब कोई
अपनी मिट्टी मिल जाती है।
तन की नस-नस में अब मेरे
सोंधी सुगंध खिल जाती है।
मेरी मिट्टी छूकर जब भी
मन्द बयार मुसकाता है।
सच पूछो ! मुर्दे मन में भी
जान – प्राण फूँक जाता है।
मिट्टी की छोटी-सी गाड़ी,
उसके नन्हें-नन्हें चक्के ।
कंचे-गोली, गुल्ली-डंडा,
लुडो पर उमड़ पड़े छक्के !
वह कौन भूला सकता है भला
माँ की गोदी, बाबा (पिता) का प्यार !
हमजोली से आँख-मिचोली,
अपनी कश्ती अपना यार !
फिर से मुझको अपना बचपन
अपने पास बुलाता है।
जब आना, तब मुझे बुलाना
कहता, रोता – मुसकाता है !!