बचपन एक उत्सव
पता नहीं कहानियाँ कैसे लिखी जाती है। चंद शब्दो में तो शायद एक पूरी कहानी का जिक्र हो पाना शायद ही मुमकिन है। परंतु पाठक का ज्यादा समय न लेते हुये एक छोटी कहानी जो हृदय में उत्सव जैसा ही बसा हुआ है, और ऐसा उत्सव दूबारा हममे से किसी ने भी महसूस नही किया है, और शायद हो भी न को इस मंच पर साक्षा कर रहा हूॅं।
हमेंशा से स्कुल जाने से कतरने वाले बच्चों में भी शामिल था। परन्तु स्कुल का वो दिन अब जा कर लगता है कि कितना खास हुआ करता था। आपको तो पता ही होगा सप्ताह के स्कुल के छः दिनों में से आधे दिन का शनिवार जो मुझे और हमारे सभी साथियो को आनंद से भर देता था, कैसा हुआ करता था। उस दिन जबकि स्पेशल क्लास हमारे विधालय के सख्त शिक्षको द्वारा लिया जाता था, जैसे पूछ-ताछ करना और सभी को बारी-बारी से सबको ठोकना इस तरह शायद ये दिन उस शिक्षक के लिये उत्सव भरा हो, पर हमारा तो इस जोखिम के बाद वाला महौल का था। पिटाई खा लो या किसी भी तरह का बहाना बना लो पर 12 बजे किसी तरह घर पर आ जाओ ताकि अपना शक्तिमान का एपिसोड और जुनियर जी का एपिसोड के साथ सकला का बूम-बूम मिस न हो जाय। इस चक्कर में कई बार तो क्लास से बंक भी मारा दोस्तो के साथ। उस समय बंक मारना क्या होता है, ये तो पता ही नहीं था, पर जाने-अनजाने हम ये विधि को कभी-कभार अंजाम दे रहे थे। आज भी अगर दोस्तो के साथ बैठे तो पुरानी बातें ही शामिल रहती है, जिसे याद करके हम सभी रोमांचित हो जाते है। हम सभी दोस्तो ने कितनी भी पार्टियॉ मनवायी, मैने शनिवार का नाइट आउट किया, देर रात जक जगता रहा हूॅ, शादियॉ अटेन्ड कि,डॉस किया, खाया-पिया, पुजा-त्योहार मनाया पर बचपन में जितना कुछ पल जो भी ऐसे-ऐसे करनामों से भरा है, वही आज भी याद कर लेना एक सच्चा उत्सव बना लेना जैसा लगता है। सबकुछ उस दरिमयॉ बेमतलब सा था, निस्वार्थ, बेहिचक और अपार श्रद्धा से भरा हुआ था इसलिय उस समय कि खुशियों में रोम-रोम जितना पुलकित हुआ उतना अब कहॉ।
इसलिए मेरे लिये मेरा बचपन ही एक उत्सव है, जिसे याद कर लेना ही अपने आप को वापस जीवंत कर डालना जैसा है।