बंजर भूमि हुई मेरी
आशंकित सा जीवन यह
सदा ससंकित रहता है ,
कही ये कही वो हो न जाय
इसी फेर में पड़ा रहता है।
जब भी कुछ अच्छा नया
करने का मन होता है ,
किसी न किसी आशंकावश
पैर अपना खींच लेता है।
करते करते यही सुनो
एक एक सोपान चढ़ा जीवन ,
बन गया मरुस्थल सा मै
बनाना चाहा था मै उपवन।
सांध्य वयों की संध्या पर
आशंकित मन विप्लव से ,
क्या होना था क्या हो पाया ?
भयभीत आज मै उत्सव से।
जब अतीत में खुद को देखा
हाथ लगा नहि कुछ मेरे ,
उहापोह में जीवन बीता
संशय में हूँ साँझ सबेरे।
समय नही अब पास मेरे
कि भविष्य में आस लगाऊं ,
बंजर भूमि हुई मेरी
अब कैसे मै फसल उगाऊं।
रे मन अब चिंता मत कर
होना था जो वही हुआ ,
छोड़ कोसना स्वयं को साधो
मन वैरागी मेरा हुआ ।
काश समय से चेता होता
बेशक मधुबन पा जाता ,
निर्मेष मृगमरीचिका बन
बेशक दुःख नहि मै पाता।
निर्मेष