बंगला साहित्य के उत्कर्ष के पर्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर
बंगला साहित्य के उत्कर्ष के पर्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर
— —-प्रियंका सौरभ
बांग्ला साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर रवीन्द्रनाथ ठाकुर बीसवीं शताब्दी के शुरुआती चार दशकों तक भारतीय साहित्याकाश में ध्रुवतारे की तरह चमकते रहे। बंगला साहित्य के उत्कर्ष के पर्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर देश के महानतम कवियों, कथाकारों, उपन्यासकारों, नाटककारों, चित्रकारों, संगीतकारों और शिक्षाविदों में एक थे। भारतीय मनीषा के इस शिखर पुरूष का व्यक्तित्व किसी किसी प्राचीन ऋषि के जैसा था जिसमें न सिर्फ हमारे प्राचीन विवेक में गहराई तक उतरने का विवेक था, बल्कि भविष्य की आशावादी दृष्टि भी थी। उन्हें पढ़ते हुए मानवीय अनुभव और विवेक के उच्च शिखर के सामने खड़े होने की विरल अनुभूति होती है।
अपने काव्य ‘गीतांजलि’ के लिए विश्व का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले वे पहले भारतीय साहित्यकार थे। उन्होंने अपने जीवन में साहित्य की सभी विधाओं में भरपूर रचा। शिक्षाविद के रूप में शांतिनिकेतन की स्थापना शिक्षा को अपनी संस्कृति से जोड़ने का उनका अभिनव प्रयास था। उनकी कहानियों पर बंगला में कई कालजयी फ़िल्में बनीं। हिंदी में उनकी कहानियों पर बनी फिल्मों में प्रमुख हैं – काबुलीवाला, उपहार, बलिदान, मिलन, कशमकश, चार अध्याय और लेकिन।
किसी भी देश की वास्तविक पूंजी उसके नागरिकों में ही छिपी होती है। इसीलिए मानव संसाधन के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। लोगों की प्रतिभा और मेहनत से देश की शान भी बढ़ती है। यही नहीं कुछ लोग तो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी देश व समाज की पहचान तक बन जाते हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भी ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक पहचान को चार चांद लगाए। उन्होंने अपनी प्रतिभा, मानवतावादी विचारों, कार्यों व लेखनी के माध्यम से दर्शन, साहित्य, संगीत, चित्रकला, शिक्षा सहित विभिन्न क्षेत्रों को नई देन दी, जिसे सदा याद रखा जाएगा।
शासन-सत्ताओं की नृशंस कार्रवाईयों को देखते हुए उन्होंने उनकी सर व नाइटहुड आदि की उपाधियों को लौटा दिया। उनके योगदान को देखते हुए देश की जनता ने उन्हें सम्मान स्वरूप गुरुदेव की उपाधि दी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के कार्य देश की सीमा से निकल कर दुनिया भर में चमके। 1913 में उनके गीत संग्रह-गीतांजलि के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया।
यह केवल भारत का ही नहीं बल्कि साहित्य के क्षेत्र में एशिया महाद्वीप का पहला नोबेल पुरस्कार था। वे दुनिया के पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके लिखे गए गीत दुनिया के दो देशों के राष्ट्रगान के रूप में विभूषित हुए। उनका लिखा गया-जन गण मन अधिनायक जय हे भारत का राष्ट्रगान है तो उन्हीं की रचना आमार सोनार बांगला बांग्लादेश का राष्ट्रगान है। अपने जीवनकाल में उन्होंने देश-दुनिया के विभिन्न स्थानों की यात्राएं की और अनेक महान शख्सियतों के साथ मुलाकातें की। 12 साल की उम्र में रबीन्द्रनाथ टैगोर ने अभिलाषा कविता लिखी, जोकि तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।
रविन्द्र की उम्र 13 साल की ही थी कि मां का देहांत हो गया और रबीन्द्र फिर से हिमालय जाने की सोचने लगे। ऐसे में बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ और उनकी पत्नी कादंबरी देवी ने बड़ा सहारा दिया। सदमे से उबरने पर 14 वर्ष के रबीन्द्र ने 1600 शब्दों की कविता-वनफूल लिखी, जोकि ज्ञानांकुर पत्रिका में प्रकाशित हुई।
संक्षेप में कहें तो रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व इतना विराट था कि किसी एक रचना से उसे समझा नहीं जा सकता। उनकी कविताएं, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटकों ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई तो संगीत, नृत्य, नाट्य व चित्रकला के क्षेत्रों को भी देन दी। अपने शिक्षा संस्थान को चलाने के लिए उन्होंने देश भर में जा-जाकर नाटक खेले। सात अगस्त, 1941 को उनका निधन हो गया, लेकिन अपने काम व रचनाओं के जरिये वे सदा भारत की शान व पहचान बने रहेंगे।
—-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,