” फेसबुक के ग्रुप “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल”
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प्रतिबंधों की काली लालिमा से हम बाल्यावस्था से ही जूझते रहते हैं ! ” यह मत करो ….इसे मत छूना …वहां मत जाना …इत्यादि..इत्यादि ” ! उन दिनों हम अज्ञानता के अंधकारों को चीरना चाहते हैं …आबोध बालक को भला ज्ञान हो तब ना ?..क्या अच्छा है ..क्या बुरा ..? इसकी पहचान होनी आवश्यक होती है ! हमारे अग्रज हमें राह दिखाते हैं ! ..अच्छे… बुरे की पहचान दिलाने में प्रतिबंधो का योगदान उल्लेखनीय माना जाता है ..क्रमशः हम युवावस्था में प्रवेश करते हैं ..यहाँ प्रतिबंधों की महत्ता काफी बढ़ जाती है ! इसी दौर में हम प्रायः -प्रायः द्रिग्भ्रमित हो सकते हैं ! हांलाकि कुछ निर्देश भिन्य हो जाते हैं ….”देखो ..पढाई पर ध्यान दो …शिष्टाचार ..मृदुलता …और सामाजिकता के दायरे में अपने को ढालो ….स्कूल और महाविद्यालय के पढाई के बाद सीधे घर चले आओ ….इत्यादि..इत्यादि “!……प्रतिबंधों का जाल तो हमारी नोकरियों के दौरान भी बिछाई जाती है …” समय की पाबंदी.. अच्छा पोशाक..वरिष्ठों और कनिष्ठों से आचार -विचार ..और कार्यकुशलता ” …प्रतिबंधों के ही चारदीवारों में हम जकड़े चले जाते हैं !……. ..इसकी काली घटाओं से शायद ही कोई बच पाए ? ……हरेक अवस्था में हमें इनसे जूझना पड़ता है !….प्रतिबन्ध की पकड़ थोड़ी ढीली होने लगती है जब हमारी गिनती बुजुर्गों में होने लगती है !.इस समय प्रतिबन्ध लगाने का काम हमारी अपनी चेतना ही कर पाती है ! क्या उचित है …क्या अनुचित ..इसके हम महारथी माने जाने लगते हैं !…. फेसबुक के पन्नों में कुछ लिखने से पहले हम आत्ममंथन करते हैं ! …..प्रतिबंधों की काली लालिमा को हम अपने तक फटकने नहीं देते !…. पर कुछ मित्र अनायास ही इन बंधनों में हमें जकड़ना चाहते हैं ! …बिन कहे ..बिन पूछे …हमें किन्हीं ग्रुपों से जोड़ देते हैं ! “..ना बाबा ना ..अब और नहीं सहा जाता प्रतिबन्ध !”…… सम्पूर्ण जीवन तो हमारा इन्हीं से पाला पड़ता रहा ! ….एडमिन के हाथों में हमारी सांसों की डोर थमी है …फिर सेंसर ..”पद्मावती ” ..को ..”पद्मावत ” ..लिखो …ये ग्रुप तो हमें ” करणी सेना ” …लगती है ! …..अब हम इन प्रतिबंधों से निजाद पाना चाहते हैं ..कुछ तो स्वतंत्रअब हमको रहने दें .!!!!!
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
दुमका