फिल्मी पर्दा करे बेपर्दा
लेख –
फिल्मी पर्दा करे बेपर्दा
सभ्यता और संस्कृति किसी भी देश की सर्वश्रेष्ठ शीर्ष की धरोहर मानी जाती है । भारतीय सभ्यता और संस्कृति में एक अनुशासन, नैतिकता, प्यार, सद्व्यवहार झलकता है । मगर आज अंधाधुंध पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते हुए हमारी युवा पीढ़ी जो देश का भविष्य है, गर्त में डूबती जा रही है । पश्चिमी देशों में खुलेपन को गलत नहीं माना जाता । वहाँ की संस्कृति इसी प्रकार की है मगर हम भारत देश की बात करें तो हमारी संस्कृति बहुत ही सुसंस्कृत और मर्यादित है । इस पावन धरती पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम, सावित्री के पतिव्रत धर्म, सीता के त्याग, श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति, श्रीकृष्ण की शिक्षा, कर्ण की दानवीरता की बात होती है ऐसी पावन और पवित्र भूमि पर आज संस्कारों का घट घटता और दुर्संस्कारों का भरता जा रहा है । इसका शत-प्रतिशत श्रेय फिल्मी जगत और मीडिया को जाता है । कहते हैं …माता-पिता, अभिनेता, डॉक्टर इत्यादि इस भूलोक पर अनुकरणीय पात्र हैं जिनका अनुसरण हमारे बच्चे करते हैं । यह पात्र बहुत ही संवेदनशील पात्र कहे गए हैं । आज की युवा पीढ़ी को देखा जाए तो वह अपने पसंदीदा अभिनेत्री या अभिनेता का अनुसरण करता है वैसा ही दिखना,बनना चाहता है । वैसे ही काम करना चाहता है। आज के माहौल में इन पात्रों की जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है क्योंकि यह लोग समाज का दर्पण हैं और समाज की तस्वीर को सामने लाते हैं आज फिल्मी जगत से जुड़े अभिनेताओं और निर्माता-निर्देशकों को कोई भी चलचित्र या फिल्म बनाते हुए यह ध्यान जरूर रखना होगा कि वह जिस चीज़ को समाज के सामने पेश कर रहे हैं उसको पेश करने का तरीका क्या है, क्या जिस प्रकार वह समाज के सामने उसका प्रतिरूप रख रहे हैं वह तरीका सही है । जो बच्चे या युवा उसको देखेंगे उसके लिए वह शिक्षाप्रद है या उनको मार्ग से भटकाने का एक औज़ार जो उनके जीवन में एक भवंडर ला सकता है । पैसा कमाना और एंटरटेनमेंट करना एक अलग पहलू है मगर देश के युवाओं के मस्तिष्क पर एक गलत प्रभाव छोड़ना वह किसी मायने में सही नहीं हो सकता ।
आज हर तरह की फिल्मों को सेंसर ‘ए’ सर्टिफिकेट देकर पास कर देता है चाहे उसमें कितनी भी अश्लीनता हो …
क्या यह सही है ?
क्या इस तरह की फिल्में जो लिव इन रिलेशन शिप पर आधारित हैं परिवार और परिवार के छोटे बच्चों के साथ देखने लायक हैं या फिर जो युवा पीढ़ी 18 साल की उम्र या उससे कम के हैं उनके देखने लायक हैं ?
क्या हद से ज़्यादा खुलापन हमारी संस्कृति के लिए घातक नहीं ?
क्या जो चीज बंद कमरे में मर्यादित हो उसे खुले रूप में दिखाना उचित है ? क्या इस प्रकार की फिल्मोम के माध्यम से हम आने वाले युवा पीढ़ी की मानसिकता पर प्रहार नहीं कर रहे । मेरा मानना है कि अच्छे कार्य और सोच की असर कायम करने में बहुत समय लग जाता है मगर गलत और बुरा काम बहुत जल्दी अपना असर छोड़ता है ।
उदाहरण के तौर पर ‘वीरे दी वेडिंग’ फिल्म की बात करें तो चाहे फिल्म जितने भी सकारात्मक पहलुओं पर आधारित हो, चाहे इसे कॉमेडी फिल्म भी कह लिया जाए परंतु फिल्म पारिवारिक बिलकुल नहीं कही जा सकती । इस फिल्म को परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता खासकर बच्चों के साथ, फिर भी फिल्म को सेंसर ने ‘ए’ सर्टिफिकेट से पास कर दिया है …।
क्यों ???
क्या स्वरा भास्कर पर फिल्माए गए आपत्तिजनक दृश्य प्रशंसनीय हैं ?
क्या इन दृश्य से महिलाओं के सशक्तिकरण का संकेत मिलता है ?
ऐसी सोच रखने वाले लोगों से मैं असहमत हूँ और कहती हूँ कि उनकी निंदनीय है ।
यह फिल्म एकता कपूर की चर्चित फिल्मों की सूची में रखी गई है मानती हूँ कि फिल्म सकारात्मक सोच के साथ सुखांत भी है परंतु उस पर नकारात्मक चीजें बहुत ही हावी हैं जिसके कारण फिल्म की अच्छाई छिप गई है, क्योंकि जिस खुलेपन के साथ चीजों को दर्शाया गया है उससे बुरी भावनाओं के पनपने की संभावना अधिक हो जाती है और ऐसे में अच्छाई धूमिल पड़ जाती है । आज समाज में जो बुराइयाँ और अराजकता विद्यमान है उसको देखते हुए हमारा यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि आज की युवा पीढ़ी को अच्छी सोच, संस्कार शिक्षा और मानवीय मूल्यों से फलीभूत कर एक उन्नत और सुसंस्कृत समाज का निर्माण करें । कहते हैं न… कि जैसा बीज बोए वैसा फल पाए अर्थात जो हम देंगे वही आगे भावी पीढ़ी को हस्तांतरित होगा ।
इस पृथ्वी पर प्रत्येक मनुष्य समान नहीं है सभी की सोच, शरीर, मन,मस्तिष्क, रूप, रंग भिन्न है । सभी एक दूसरे से अलग हैं । समाज में बहुत से वर्ग हैं । मैं शिक्षक वर्ग से संबंध रखती हूं इसीलिए नैतिकता की बात करती हूँ । नैतिक रूप से इस प्रकार की फिल्में हमारी संस्कृति के विपरीत हैं । एक शिक्षक और लेखक होने के नाते मेरा यह परम कर्तव्य बनता है कि मैं आज की युवा पीढ़ी को अच्छी शिक्षा, विचार और गुणों से समृद्ध करूँ क्योंकि शिक्षा प्रदान की जाती है शिक्षा का प्रसार किया जाता है अच्छाई को सिखाया जाता है , मगर बुराई अपने आप ही लोगों में पनप जाती है जिसे रोकना ज़रूरी है । शिक्षा प्रदान करने के लिए स्कूल होते हैं लेकिन बुराई के लिए नहीं यह चहुँ ओर स्वयं ही व्याप्त है इसलिए प्रत्येक कदम पर सतर्कता आवश्यक है इन चीज़ों का हमारे बच्चों पर प्रभाव न पड़े उसके लिए जागरूक हमें ही होना है । फिल्म बनाना अपने आप में एक महान कार्य है क्योंकि फिल्में समाज का दर्पण दिखाती है अच्छी फिल्मों से सीख मिलती है और बुरी फिल्मों से बुराई पनपती है । फिल्में हर वर्ग का व्यक्ति देखता है …निम्न से लेकर उच्च, छोटे से लेकर बड़ा, जवान से लेकर बूढ़ा । लोग अभिनेताओं के जैसे दिखना और बनाना चाहते है कुछ लोग इनको अपना ICON मानते हैं । जो कार्य या पात्र अनुकरणीय है वह संवेदनशील भी है । इसलिए फिल्म निर्माताओं को इस चीज़ का ध्यान रखना होगा कि जो चीज़ वह परोस रहे हैं या पर्दे पर दिखा रहे हैं उसको दिखाने का तरीका क्या है अर्थात हर चीज का प्रस्तुतीकरण अगर मर्यादित रहे तो वह अच्छा रहेगा पश्चिमी सभ्यता का अंधाधुंध अनुकरण करके अपने देश की संस्कृति को नष्ट करना कोई समझदारी नहीं है ।
पश्चिमी सभ्यता को अपनाकर
अश्लीनता को दर्शाकर
खुलेपन को दिखलाकर
कुछ नहीं हासिल कर पाओगे
अपने देश की संस्कृति और संस्कारो को नष्ट करने में अपने को शीर्ष पर पाओगे ।
जहां से फिर नीचे आना असंभव होगा ।
अपने आप से आँखें मिलाना दुष्कर होगा ।
लेखिका
नीरू मोहन ‘वागीश्वरी’