“फिर से”
तकिये के नीचे
बिखरे हुए सपनों को
समटते समटते पता नहीं
कैसे कहाँ खो गई मेरी उम्र
घने जंगल में, ढूँढ रही थी मैं
और भाग रही थी उम्र
मैं भी थी उसके पीछे
कोशिश , पकड़ने की
ये देखो!,फिसल गई फिर से
रिक्त मेरा हाथ
चारों तरफ घेर के बैठे हैं
पंचभूत
मुझ से मेरे ही अंश को
छीनने के लिए
पाप पुण्य का हिसाब
गुणा करता रहता है अंधेरा
हिमालय चढ़ने में
सक्षम और कौन
युधिष्ठिर के सिवा
अंश सब खोकर
छू कर उस बिंदु को
आना होगा वापस
उसी ख़ाली कुटिया में
जहाँ से एक दिन पांव
निकाल कर
आगे बढ़ी थी मैं।
***
पारमिता षड़ंगी