फिर से बचपन आ जाए ।
कभी-कभी लगता है कुछ यूँ,
फिर से बचपन आ जाए ।
चले थाम उँगली मेरी,
तेरे घर तक ले जाए ।….
भूल भेद, रीति समाज की,
हँसना सबको सिखाने ।
रेत घरौंदे, गुड्डे-गुड़ियाँ,
का फिर ब्याह कराए ।….
जूठा-मीठा, खट्टा-तीखा,
हाथ से अपने खिलाए ।
बात-बात पर, नाक चढ़ा के,
मटका आँख चिढ़ाए ।…..
बाग़ की कच्ची, अमियाँ तोड़े,
देख माली, छिप जाए ।
यार बड़ा तड़पे है मनवा,
कहीं दुकान मिल जाए ।….
दीपक चौबे ‘अंजान’