फितरत
पतझड़ की फितरत में
उसकी असंख्य आवृत्तियां
लेकिन बसंत का आना
जैसे अवरूद्ध है
और जीवन अरण्य
रिक्तता का पर्याय बन रहा है
मैं तुम्हारे दुर्निवार मोह में
अपने ही अक्ष पर झुकी हुई
परिक्रमण करती रहती हूं निरंतर
लेकिन कोई ऋतु नहीं बदलती
आखिर वो तुम ही हो
जिसके स्पर्श से हो सकता था
देह के शिशिर का अवसान
और प्रस्फुटित हो सकती थी
सौम्य सी कोई कोंपल
मन के अंतर्द्वंद्व
और विकल अनुबंधों से
जब मुक्त हो जाऊं
तब तुम आ जाना
जीवन को पुनर्परिभाषित करने
किसी अंतिम सुख की तरह
अनुजीत इकबाल
लखनऊ