फागुन की बयार
फागुन की बयार
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सखि, भौंरन का उत्कर्ष देख
पुष्पों का उनका आकर्ष देख
करते जस बागन की रखवाली
डोलत हैं कैसे डारी डारी !
रंग बिरंगे फूल खिले हैं
भंवरे कैसे टूट पड़े हैं
इत-उत देखो घूम रहे हैं
मदमाते-से झूम रहे हैं।
मुस्काते पुष्पन की देखो लाली
सजी-धजी हैं कलियां सारी
प्रेम के रंग में रची बसी हैं
किसकी है स्वागत तैयारी?
ज्योंहि कली फूल बन चटकी
टोली वहां भ्रमर की पहुंची
बहती सखि फागुन की बयार
मदन है लिए गुलाल तैयार।
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।