फ़ितरत
ठोकरें खा कर राहों में एक ज़न्नत, मैंने भी बनाई थी,
सुकून का आलम था जहां, हाँ बस थोड़ी तन्हाई थी।
मुद्दतों तक जलाया था खुद को, तभी तो बारिश आयी थी,
स्वाबलंबन और आत्मविश्वास से, भरी मेरी परछाई थी।
अपने बिखरे टुकड़ों को जोड़, प्रकाशपुंज की दीप्ती मैंने भी बनायीं थी,
और खुद को तराश कर, किस्मत अपनी फिर सजाई थी।
तू फ़िक्र का आडंबर ले आया, जिससे आँख मेरी भर आयी थी,
साजिशें मिथ्या प्रेम की करके, मेरे प्रकाश में सेंध लगाई थी।
कदम भटके मेरे क्यूँकि, मुझे घर की याद सतायी थी,
सर्वस्व समर्पित कर भी, मैं तेरी आशाओं पर, खड़ी उतर ना पायी थी।
जो फ़रेब दिखा तेरा, तब रूह मेरी घबराई थी,
तिरस्कार और धोखे की लड़ी जो तूने लगायी थी।
स्तब्ध रह गया अस्तित्व मेरा और, तेरे चरित्र को मैं ना समझ पायी थी,
बिखरी तो मैं पहले भी थी, पर अब खुद को समेटने की हिम्मत भी गवाँई थी।
तेरे स्वार्थ की पराकाष्ठा, मेरी संवेदनाओं से टकराई थी,
जब आघातों की सीमा टूटी, तो देखा ये प्रेम नहीं, बेबफ़ाई थी।
तेरी फ़ितरत तो ऐसी हीं थी, तुझे क्यों शर्म ना आयी थी,
उस विश्वास को तोड़ा तूने, जो सदियों बाद, मैं किसी पर कर पायी थी।