#प्रेरक_प्रसंग
#प्रेरक_प्रसंग
■ जब एक रात के आंचल से उगे दो सूरज
◆ अच्छा वक्ता वो जो अच्छा श्रोता हो
【प्रणय प्रभात】
हम प्रायः वक्ताओं को देखते हैं। उनके मान-सम्मान के साक्षी बनते हैं। तमाम की वक्तव्य कला के क़ायल होते हैं। कुछ से रश्क़ करते हैं। किसी की संभाषण कला को जन्मजात या ईश्वरीय देन बताते हैं। मतलब सब कुछ करते हैं। सिवाय उन्हें रुचि व मनोयोग से सुनने और प्रेरित होने के।
हम कभी नहीं चाहते उनके जैसा या उनसे श्रेष्ठ बनना। कारण केवल एक बोध व सोच की कमी। हम नहीं जानना व मानना चाहते कि श्रेष्ठ वक्ता बनने की पहली शर्त है सुधि श्रोता होना। एक ऐसा श्रोता, जिसमें पात्रता भी हो और ग्राह्यता भी। धैर्य भी हो और ग्रहण की रुचि भी। जो समर्पित आज के बदले हमें स्वर्णिम कल का उपहार दे सके। यह बात आज की उस नई पीढ़ी के लिए अधिक अहम है जो किताब में बन्द एक निर्धारित पाठ्यक्रम से परे ज्ञान के अथाह सागर से परिचित ही नहीं। उसकी लहरों में डुबकी लगाना तो दूर, किनारे तक जाने का समय, समझ और साहस जिनके पास नहीं। आज की बात इसी जमात के साथ है। वो भी एक सच्चे और अच्छे प्रसंग के साथ। जो न केवल हमारी साहित्य परम्परा की देन का गवाह है, अपितु वो सब सच साबित करने में समर्थ है, जो ऊपर लिखा गया है।
बात विद्वता व पांडित्य की नगरी काशी (बनारस) की है। जिसे आज हम वाराणसी के नाम से भी जानते हैं। बात मां गंगा के किनारे बाबा विश्वनाथ की इसी ज्ञान-नगरी के एक प्रसिद्ध घाट की है। जहां गंगा किनारे एक विशेष सभा आरंभ होने को थी। श्रोताओं की चहल पहल बनी हुई थी। अतिथि आगमन का समय हो चुका था। प्रतीक्षा के क्षण समाप्त हुई। नियत समय पर पधारे अतिथि लघु मंच पर आसीन हुए। रसिक श्रोता भी लघु मंच के समक्ष अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। साहित्य के किसी विशिष्ट विषय पर व्याख्यान आरंभ हुआ। विषय गूढ़ था और व्याख्या पांडित्यपूर्ण। रस-माधुरी की आस में आए श्रोता असहज दृष्टिगत हुए। साँझ ढलने के साथ ठंड गहराने लगी थी। देखते ही देखते श्रोताओं में प्रस्थान की होड़ सी मच गई। श्रोताओं के लिए निर्धारित स्थान आधे घण्टे से भी कम समय मे रिक्त हो गया।
अब मंच पर अतिथि व दो आयोजकों सहित सामने मात्र एक श्रोता शेष था। विद्वान अतिथि श्रोताओं की वापसी से लेशमात्र विचलित नहीं थे। बे सहज भाव से सदन के एकमात्र श्रोता की ज्ञान-पिपासा को शांत कर रहे थे। उनका यह प्रयास जहां उनकी सरलता व संयम का प्रमाण था। वहीं पूर्ण मनोयोग से विचारों को ग्रहण कर रहे श्रोता के प्रति नेह भी था। यह व्याख्यान लगभग ढाई घण्टे बाद पूर्ण हुआ। भावमग्न श्रोता ने मंच से उतरे विद्वान के चरण स्पर्श किए। भाव-विह्वल विद्वान ने भी शीश पर वरद-हस्त रखते हुए श्रोता को स्नेह से अभिसिंचित किया। इसके बाद सभी वहां से निज गृहों के लिए प्रस्थित हो गए। तब यह कल्पना भी किसी को नहीं रही होगी कि इस एक रात के आंचल से दो सूर्यों का उदय होगा।
क्या आप जानते हैं कि कालांतर में क्या हुआ? कालांतर में विद्वान वक्ता आचार्य “महावीर प्रसाद द्विवेदी” के रूप में साहित्याकाश पर स्थापित हुए। वहीं श्रोता को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रूप में सहित्यलोक में प्रतिष्ठा अर्जित हुई। असाधारण बात यह है कि साहित्य में दोनों के नाम से एक-एक युग का सूत्रपात हुआ। जो द्विवेदी एवं शुक्ल युग के रूप में प्रसिद्ध है। यह प्रसंग जहां विद्वता की सहजता, सरलता, विनम्रता का परिचायक है। वहीं श्रवण निष्ठा, सम्मान व संयम के सुफल को भी रेखांकित करता है।
प्रसंग भीड़ का आकार देख कर उद्गार की समयावधि नियत करने वाले विद्वानों के लिए प्रेरक है। साथ ही उनके लिए अधिक बड़ी प्रेरणा का माध्यम है, जो किसी को पढ़ने व सुनने में अपने ज्ञान के अपमान की अनुभूति करते हैं। ऐसे किसी एक भी स्वयम्भू मनीषी की सोच प्रसंग पढ़ने के बाद बदलती है तो लगेगा कि जातीय की एक गाथा का स्मरण कराना सार्थक हो गया। अन्यथा शाहित्य जगत की दो प्रणम्य विभूतियों के प्रति एक अGकिंचन की वैयक्तिक निष्ठा व कृतज्ञता अपनी जगह है ही। इति शिवम। इति शुभम।।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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