#एक_प्रेरक_प्रसंग-
#प्रेरक_प्रसंग-
■ भाव विवश भगवान
★ आडम्बर में कुछ नहीं रखा
【प्रणय प्रभात】
भक्त और भगवान का सम्बंध भावनाओं का है। भक्ति मार्ग में ईश्वर की प्राप्ति साधनों-संसाधनों से नहीं भावनाओं से होती है। पौराणिक ग्रंथों से लेकर भक्त-माल तक ऐसे भक्तों के असंख्य उदाहरण हैं, जिन्होंने प्रभु को साधन-हीनता के बाद भी प्राप्त किया। वो भी बिना किसी मोल के। गोस्वामी तुलसीदास जी ने केवल दास्य भाव से प्रभु श्री राम व हनुमान जी को पाया तो दीन-हीन नरसी मेहता ने राग केदार में गाए भजनो से सांवरिया सेठ को अपने बस में कर लिया। भक्तिमती शबरी ने झूठे बेर से, माता मीरा ने दूध के कटोरे से, कर्मा बाई ने खिचड़ी से तो संत एकनाथ ने रोटी से तो भक्त गजराज गजेंद्र ने कमल के एक फूल से प्रभु को पा लिया। विदुर-पत्नी ने केले के छिलके खिला कर माधव को अपना बना लिया। गोपियो ने थोड़ी सी छाछ से, सुदामा ने चार मुट्ठी चावल से द्वारिकाधीश को अपने वश में कर लिया। वाकपटु केवट ने प्रेम भरे वचनों से तो गुहराज निषाद ने समर्पण के भाव से राम जी की कृपा पाई। बालक ध्रुव और प्रह्लाद के पास कौन सा धन था, सिवाय एक निश्छल मन के। संत शिरोमणि रविदास, संत प्रवर तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, संत कबीर के पास भी कुछ नहीं था केवल निर्मल भावों के अलावा। अनगिनत उदाहरण हैं पावन भक्ति मार्ग के।
श्री रामचरित मानस की इन दो चौपाइयों से भी अनमोल भगवान का मोल जाना जा सकता है। स्वयं प्रभु श्री राम ने कहा है कि- “निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहे कपट छल-छिद्र न भावा।।” इसी तरह बाबा तुलसी कहते हैं कि “हरि व्यापत सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रकट होहि में जाना।।”
स्पष्ट है कि भगवान का मोल धन-संपदा नहीं, प्रेम, श्रद्धा, भावना और समर्पण ही है। जो संतजनों की सदकृपा से सहज सम्भव है। भक्त और भगवान के बीच न किसी आडम्बर की आवश्यकता है और ना ही किसी बिचौलिए की। उनकी तो बिल्कुल नहीं, जो स्वयं को ईश्वर का द्वारपाल बताने और बरगलाने से नहीं चूकते। भगवान भले और भोले लोगों पर आसानी से रीझ जाते हैं। इसी सच को सिद्ध करता है यह एक सच्चा किस्सा:–
एक सामान्य भक्त भगवान श्री जगन्नाथ जी के दरबार में दर्शन के लिए नित्य-प्रति जाता था। एक दिन वह किसी को एक भजन गाते हुए सुन आया। जिसका मुखड़ा कुछ इस तरह था-
“जगन्नाथ जी के चरण कमल में नयन हमारे अटके।”
भक्त को भजन इतना भाया कि वो इसे रास्ते भर एक ही धुन में गुनगुनाते हुए घर लौटा। अगले दिन सुबह-सवेरे पूजन के समय उसे फिर यही भजन सूझ गया। गड़बड़ बस एक शब्द ने इधर से उधर होते हुए कर दी। वो भक्ति-भाव से कुछ यूं गाने लगा-
“जगन्नाथ जी के नयन-कमल में चरण हमारे अटके।”
भजन गाते हुए भक्त इतना भावुक हुआ कि उसकी आँखों से आँसू अविरल बरसने लगे। वो लगभग पूरी तरह इस एक पंक्ति में डूब चुका था। तभी पूजा घर में एक दिव्य प्रकाश फैल गया। भावों की दुनिया से बाहर आए भक्त ने प्रभु श्री जगन्नाथ जी को अपने सामने पाया। वो कुछ समझ या बोल पाता, उससे पहले ही भगवान जगन्नाथ जी हाथ जोड़ कर बोले-
“भक्त महाराज! अब कृपा कर के अपने चरण-कमल मेरी आँख में से बाहर निकाल लो। वरना मेरी आंखें फूट जाएगी।”
भक्त को उसकी भावपूर्ण भूल बताने के बाद प्रभु ने उसके शीश पर हाथ फेरा और अंतर्ध्यान हो गए। एक भजन को ग़लत गाने के बाद भी भक्त को प्रभु के सहज दर्शन से जुड़ा यह प्रसंग बताता है कि भगवान भक्ति और भाव के अधीन हैं। वो बड़े से बड़े और भव्य आडम्बर नहीं छोटी सी चूक पर रीझ जाते हैं। बस भक्त का मन निर्मल होना चाहिए। बिल्कुल एक अबोध बच्चे की तरह। अब यह अलग बात है कि प्रभु की माया के अधीन संसार में शिशु सा सरल होना ही सबसे कठिन कार्य है। फिर भी नहीं भूला जाना चाहिए कि-
“उल्टा नाम जपहु जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।”
इससे बड़ा और महान उदाहरण शायद कोई और नहीं।
जय जगन्नाथ।।