प्रेयसि पर मर मिट जाना है
प्रेयसि पर मर मिट जाना है
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मैं नालायक, लोफर भी हूँ
तुम देख मुझे मुस्काती हो;
पलकों को मीचे, वृहत नैन
मुझ पर अपनत्व जनाती हो।
जो नैन मिले चुपके से तो
कलिका गुलाब हो जाती हो,
सुनकर मेरे गीत प्रियतमा
बरबस सकुचाती जाती हो।
जो गीत लिखूँ उर लाली से
नगमें तेरे बन जाते हैं,
गूँजें मधुरिम गज़लें बनकर
जब श्रवण रंध्र तक आते हैं;
अंतस में बरखा बन बादल
नित बूँद-बूँद बरसाते हैं,
सुमुखि याद में तप्त हृदय को
शीतल करते वे जाते हैं।
ख़्यालों में हो, निशि-दिन बसती
तुम मेरे रौब बढ़ाती हो;
प्रियतम, साँसों में घुल मेरी
तुम कर्पूरी कहलाती हो।
कविता तुम मेरी सदा सुमुखि
कवि हूँ मैं चंद्र कपोलों का,
हूँ बाँच रहा निःशब्द गीत
तेरे इन धवल कपोलों का;
सुर्ख़ लबों को छूकर प्रेयसि
ये गीत अमर हो जाते हैं,
चुभते रहते मेरे मन में
ये रैन-दिवस तड़पाते हैं;
नीरवता में, बात कहूँ मैं
तेरी घनघटा काकुलों की,
विस्मित होता हूँ देख रहा
लीला फहराते बालों की.
हैं सदा यही दर्पण मेरे
ये नैन द्रवित जो तेरे हैं,
नित देख रहा हूँ जीवन में
स्वप्नों से भरे सवेरे हैं;
प्रिय आँखों में बस जाना है
जीवन बाकी अफसाना है,
ये गीत पुकारे हैं मेरे
प्रेयसि पर मर मिट जाना है।
…“निश्छल”