प्रेम लक्ष्य है।
प्रेम
प्रेम लक्ष्य है, पर प्रेम तक पहुँचने का साधन भी प्रिय होना चाहिए। लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग पर प्रसन्न रहो| साधन से प्रसन्न रहो, साधन को प्रेम करो। जहाँ कोई प्रयत्न नहीं, जब क्रियाशीलता का ज्वर नहीं , तुम प्रयासहीन होते हो, तब प्रेम सहज उमड़ता है।
प्रेम तुम्हारा स्वभाव है। प्रेम को व्यक्त करने की प्रक्रिया में प्रायः तुम विषय-वस्तु में उलझ जाते हो। ऐसा तब होता है जब तुम्हारी दृष्टि बाहर अटकी है। अपने स्वरुप में वापस आने के लिए तुम्हें आन्तरिक दृष्टि की आवश्यकता है।
पीड़ा प्रथम अन्तर्दृष्टि है। यह तुम्हें विषय-वस्तु से परे ले जाकर, शरीर और मन की ओर मोड़ती है। ऊर्जा, दूसरी अन्तर्दृष्टि है। ऊर्जा का तीव्र झोंका तुम्हें वापस आत्मा की ओर लाता है। दिव्य प्रेम, तीसरी अन्तर्दृष्टि है।
दिव्य प्रेम की एक झलक सम्पूर्णता लाती है और सभी साँसारिक सुखों को तुच्छ बना देती है। समाधि, चतुर्थ अन्तर्दृष्टि है – वह स्थिति जिसमें चेतना के उत्थान के साथ भौतिक वास्तविकता के प्रति आंशिक सजगता भी होती है।
अद्वैत के प्रति सजगता पाँचवी अन्तर्दृष्टि है ! यह बोध कि सब-कुछ एक से, सिर्फ एक से ही बना है।
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