प्रेम पात्रता नहीं देखता …
प्रेम पात्रता नहीं देखता …
हृदय को जहां एक धक्का लगे और हृदय चीख कर कहे, यही तो है … जिसके लिए मेरे हृदय में कोमल भावना हैं। जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूॅं।
यह मेरे सोए हुए एहसासों को जागृत करता है।
इस के सानिध्य में मुझे खुशी मिलती है … और ठीक वहीं प्रेम गिर जाता है ह्रदय में।
ह्रदय की यही भावना इस चराचर के समस्त सजीव – निर्जीव से हमें बांधता है। हम से प्रेम करवाता है।
नहीं तो कब कोई पिता अपने संतान को गर्भ में धारण करता है। कब अपने खून से सींचता है।
फिर भी वह अपने संतान से उसकी जननी से अगर अधिक नहीं तो कम भी तो नहीं करता प्रेम …
जन्म के बाद जब पहली बार संतान को पिता अपने हाथों में लेता है और उसके कोमल स्पर्श को अनुभव करता है। ठीक उसी वक्त उसे यह एहसास होता है इसके लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूॅं … कुछ भी …
बस में हो तो आसमान से चांद तारे तोड़ कर ला सकता हूॅं। पहाड़ को पीठ पर उठा सकता हूॅं। समुद्र में बांध बना सकता हूॅं।
जो बस में हो, जो बस में ना हो, सब करने को तैयार और वही तो है प्रेम …
~ सिद्धार्थ