प्रेम-पाती
प्रेम का प्रतिदान
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प्रेम की पाती पवन, पढ़ रहा होकर मगन , पा रहा प्रतिदान ।
चिर प्रतीक्षित गंध से, मुग्ध मन मकरंद से, हैं सुवासित प्रान ।।
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रंग वासंती धरा पर , क्षितिज तक बिखरा हुआ,
नेह की लहरें उठें उर , प्रेम पथ ठहरा हुआ,
रेशमी तन की छुअन, स्वांस में दहके अगन, मन करे संधान ।
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है बहुत बेचैन मन में, बस मिलन की कामना,
डूबने को एक दूजे में ,करे उर याचना,
आ प्रिये टेरूँ तुझे, बाँह में घेरूँ तुझे, फिर करें रसपान ।
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दूर हूँ तुझसे मगर ,मन से मिलन मन का हुआ,
बह रहे जल से किनारे ,ने किनारे को छुआ,
फगुनी मौसम कहे, पीर विरहा क्यों सहे, छेड़ हिलमिल तान ।
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ओठ पर तुझको सजा लूँ, आ बना कर बाँसुरी,
मैं सदा आधार हूँ तू ,प्रेम की मेरी धुरी ,
एक दूजे के बिना, रंग बिन जैसे हिना , ज्यों बिना सुर तान ।
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-महेश जैन ‘ज्योति’
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