प्रेम पथिक
मैं परदेशी मैं क्या जानूं
प्रेम जगत की भाषा।
दीवाना हो फिरूं जगत में
मन में लेकर प्रेम पिपासा।
आहत’ हूँ थोड़ा सा
थोड़ा विचलित भी हूं मैं।
नया पथिक हो प्रेम पंथ का,
सहचर की है अभिलाषा।।
बड़ी कठिन है, डगर प्रेम की
कुछ पथिकों ने बतलाया ।
फिर भी निकला हूँ घर से,
ले मधुर मिलन की आशा।।
जहाँ चाह है वहीं राह हैं,
अब तक सुनता आया हूं
लगाऊँ प्रेम सिंधु की,
हिय में हैं जिज्ञासा ||
नरक, यहीं है, स्वर्ग’ यही पर,
देखो’ मन की आंखो से ।
सच हो जायेंगें सारे सपने,
ऐसी है मुझको आशा ||
जय प्रकाश श्रीवास्तव* पूनम*