“प्रेम की अनुभूति”
आप आएँ, हो हर्ष अपार,
सजाऊँ विधि से वन्दनवार।
निहारूँ अपलक तेरी राह,
करूँ ना, जग की कुछ परवाह।।
नयन पर होँ, नयनोँ के वार,
न माने किन्तु, कोई भी हार।
निभाऊँ कैसे शिष्टाचार,
प्रश्न, मन मेँ हैं मेरे, हज़ार।।
आ गया जो इसमेँ, इक बार,
ठहरना, फिर है अपरीहार्य।
कहूँ कैसे मैं बारम्बार,
नहीं बाहर का, उर मेँ द्वार।।
प्रेम की है, अद्भुत अनुभूति,
नहीं होता इसका, व्यापार।
अप्रतिम, निश्छल, इसकी रीत,
दुखों मेँ “आशा” का आगार..!
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