प्रेम – एक लेख
प्रेम, ये ढाई अक्षर का शब्द, क्या है? क्या है इसका सही अर्थ? प्रेम की बहुत सारी परिभाषाएं हैं, किंतु क्या ये पूर्ण है। क्या प्रेम को सच में वैसे ही परिभाषित किया गया है जैसा वो है।
कुछ की नजर में प्रेम दो दिलों का मिलना है, कुछ की नज़र में दो आत्माओं का मिलना है तो वही कुछ इसको दो जीवों के मिलन और उनका आजीवन एक दूसरे के साथ रहने को प्रेम कहते हैं। कुछ की नजर में प्रेम पागलपन है। तो वही एक हिंदी गाने के बोल याद आते हैं “बिन तेरे दिल कहीं लगता नही वक्त गुजरता नहीं, क्या यही प्यार है”! वहीं एक दूसरे हिंदी गाने का बोल कुछ यूं परिभाषित करता है, “चलते चलते यूं हीं रुक जाता हूं मैं, बैठे बैठे कहीं खो जाता हूं मैं, कहते कहते ही चुप हो जाता हूं मैं, क्या यही प्यार है”!
क्या सच में ऐसा ही है। प्रेम क्या सिर्फ एक ही बार होता है या यूं कहें कि एक ही से होता है। क्या किसी को पा लेना ही प्यार की सफलता है।
सबकी विचारधारा एक सी नहीं होती, उसी प्रकार सबका प्रेम भी एक सा नहीं हो सकता। तो किसका प्रेम सच्चा और किसका झूठा है ये कौन बताएगा?
आज कल तो प्रेम में धोखा खाने का भी ज़िक्र बहुत ज्यादा होने लगा है। क्या सचमुच में प्रेम में धोखा हो सकता है या जिसे हम प्रेम समझते हैं वो ही एक धोखा है। क्या किसी को पाना या किसी के साथ जीवन गुजारना ही सच्चा प्रेम है।
ढाई अक्षर का प्रेम, ढाई अक्षर के कृष्ण के समान है। जिस प्रकार कृष्ण को समझना मुश्किल है ठीक उसी प्रकार प्रेम को। कृष्ण के समान ही प्रेम का स्वरूप भी बहुत विस्तृत है। इस प्रकार ये समझा सा सकता है के कृष्ण और प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं।
प्रेम की परिकल्पना तो निःस्वार्थ होती है फिर प्रेम में धोखा कैसे हो सकता है। जहां स्वार्थ निहित है वहा प्रेम कैसे हुआ! या तो प्रेम हो सकता है या स्वार्थ, दोनों एक साथ नहीं हो सकते। जब आपकी कोई अपेक्षा ही नहीं थी कोई स्वार्थ ही नहीं था तो धोखा कैसे हो सकता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन भी तो प्रेम ही है। किसी की खुशी चाहना या किसी को खुश देखना भी तो प्रेम है।
यदि हम ये बोले की प्रेम जीवन में सिर्फ एक ही बार होता है तो ये असत्य है। क्योंकि हम सभी के अंदर ये भावना जन्म के साथ ही जुड़ जाती है और ये निस्वार्थ होती है। जन्म लेने के साथ ही मां के लिए सबसे पहले ये भावना जन्म लेती है। फिर धीरे धीरे पिता के साथ ये भावना जुड़ती है, उसके बाद भाई,बहन, मित्र, पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा अन्य के साथ भावनाएं आगे बढ़ती हैं और बदलती रहती हैं। इस तरह से प्रेम का स्वरूप भी समय के साथ बदलता रहता है।
तो प्रेम का स्वरूप बहुत ही विस्तृत है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
© बदनाम बनारसी