प्रेम-एक अलौकिक अनुभूति।
ईश्वर द्वारा प्रदत्त वह अलौकिक अनुभूति जो आदिकाल से प्राणी मात्र के पारस्परिक संबंधों को प्रगाढ़ करने में सबसे अधिक मजबूत डोर का कार्य करती आई है वह निश्चित रूप से प्रेम ही है।
प्रेम की महिमा का बखान दार्शनिक महान कवियों ने कुछ इस प्रकार की है –
“रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।”
प्रेम हर युग में हर काल में हर अवस्था में और हर रिश्ते में अलग अलग भूमिकाएं निभाता दिखाई देता है।
प्रेम मानव जीवन का आधार है। माता का बालक के प्रति प्रेम, भाई का भाई के प्रति प्रेम, पिता का पुत्र के प्रति प्रेम, पति पत्नी व प्रेमी प्रेमिका का प्रेम, भक्त का ईश्वर के प्रति प्रेम, देश के प्रति प्रेम भांति भांति के रूप में यह प्रेम रूपी जल हर पल हमारे अन्तर्मन की सरिता से प्रवाहित होता रहता है।
हमारे पुरातन इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि उस युग में प्रेम अपने सात्विक रूप में था। मानव अवतार में ईश्वर ने श्री रामजी व सीता माता इस अप्रतिम पावन सात्विक प्रेम के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। उस समय में प्रेम मर्यादित, संयमित निश्छल व पवित्र था।
शनैः शनैः आधुनिकीकरण व पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति के सम्पर्क के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप प्रेम केवल दैहिक, भौतिक व क्षणिक हो गया। मानवीय मूल्यों व मर्यादा की शालीनता आज का युवा वर्ग विस्मृत कर चुका है।
आने वाली पीढ़ियों में संभावना है कि देश की संस्कृति के मूल्यों में स्थापित पावन प्रेम के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो। यह तो समय ही बताएगा।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©