प्रिय सुधि पाठको, ये रचना मात्र रचना नहीं है एक ज्वलंत विचार
प्रिय सुधि पाठको, ये रचना मात्र रचना नहीं है एक ज्वलंत विचारणीय प्रश्न है-समाज में पनपती सोच के पतन की गंभीर स्थिति -प्रस्तुत रचना आज के पेपर में छपी एक अमानुषिक कृत्य पर आधारित है जिसने कम से कम मेरी भावनाओं को आहात किया है मैं समझता हूँ इस रचना से हर सुधि पाठक आहत होगा -मंच पर आप सबके समक्ष एक रचना :
संवेदनहीनता -3 ( विधा “छंद मुक्त”)
मानव का मान करो ….
सिर से नख तक
मैं कांप गया
ऐसा लगा जैसे
अश्रु कणों से
मेरे दृग ही गीले नहीं हैं
बल्कि
शरीर का रोआं रोआं
मेरे अंतर के कांपते अहसासों,
मेरी अनुभूतियों के दर पे
अपनी फरियाद से
दस्तक दे रहे थे
दस्तक
एक अनहोनी की
दस्तक
एक नृशंस कृत्य की
दस्तक
एक रिश्ते की हत्या की
दस्तक
उन चीखों की
जिन्हें अंधेरों ने
अपने गहन तम में
ममत्व देकर छुपा लिया
मैं असमर्थ था
अखबार का हर अक्षर
मेरी आँखों की नमी से
कांप रहा था
क्या एक पिता
जो परिवार का वट वृक्ष होता है
जो सबकी रक्षा करता है
जिसकी छाँव में
सब अपने आपको
सुरक्षित समझते हैं
क्या वही बागबाँ
अपने आँगन की
मासूम कलियों की
असुरक्षा का कारण
बन सकता है
क्या अपने ही संरक्षक द्वारा
तीन वर्ष की मासूम के साथ ……..
किसका कलेजा नहीं काँपेगा
ये खबर पढ़ कर
और कितना पतन होगा
इस मानव का
जो दिन प्रतिदिन
हवस का पुजारी होता जा रहा है
अपने जीवन की हर परत को
अपने कर्मों से
एक निंदनीय घृणा के रंग से
रंगता जा रहा है
इसके चलते
आज परिवार की हर कड़ी
अपने आप को असुरक्षित
मानने लगी है
पति-पत्नी ,भाई-बहन,बेटे-बेटी
कितने पावन हैं ये
ईश्वरीय रिश्ते
घर के उजाले हैं
ये ईश्वरीय रिश्ते
जिस पावन स्नेह के
अटूट बंधन से
ये सृष्टि बंधी है
उस पावन स्नेह की डोरी को
क्यूँ अपनी वहशत से
तार तार करते हो
रहम करो, होश में आओ
अपनी हवस को
अपना कर्म न बनाओ
अपने अंश को
कम से कम
अपनी दरिंदगी का
शिकार तो न बनाओ
इस ईश्वरीय प्रदत
चोले में निहित
मानवीय कर्मों का मान करो
अरे मानव हो
मानव बन के
मानव का मान करो,मानव का मान करो …..
सुशील सरना