प्राण प्रतिष्ठा या मूर्खता..??
पत्थर की मूर्ति में जबतक प्राण प्रतिष्ठा ना हो जाए तब तक वह पत्थर ही रहती है। प्राण प्रतिष्टित होने के बाद पत्थर की मूर्ति भगवान हो जाती है और फिर वह उन्हीं कर्मकांडों में बंध जाती है जो ब्राह्मण उससे चाहता है।
प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ हुआ किसी भी निर्जीव वस्तु में प्राण डालकर उसे सजीव कर देना। वस्तु में प्राण आते ही वह सजीव हो जाती है, वह साँस लेती है, खाना खाती है, पानी पीती है, प्रजनन करती है। यही क्रियाएं ही किसी भी वस्तु की सजीवता का प्रमाण है।
प्रश्न यह है कि प्राण प्रतिष्ठा कौन कर सकता है? इसका आसान से जबाव होगा, “जिसके पास प्राण हों या जो प्राण रखने का अधिकार रखता हो, वही एक जगह से प्राण लेकर दुसरे स्थान या वस्तु में रख सकता है या डाल सकता है।” जिसका अर्थ हुआ कि भगवान के पास प्राण हैं तभी वह किसी भी शरीर में प्राण डाल सकता है, या शरीर में प्राण प्रतिष्टित कर सकता है। अब इसी आधार पर दूसरा प्रश्न हुआ कि, “क्या किसी इंसान या धार्मिक व्यक्ति के पास ऐसा अधिकार है कि वह किसी भी वस्तु में प्राण प्रतिस्थापित कर सके? और वह प्राण किसी इंसान या जीव के नहीं बल्कि स्वयं भगवान के प्राण हो?” इस प्रश्न का उत्तर ना ही होगा क्योंकि किसी भी इंसान के पास ऐसा अधिकार नहीं कि वह किसी भी वस्तु या मृत शरीर में प्राण डाल सके या फूंक सके। तो फिर ब्राह्मण किस अधिकार से और किस क्षमता से किसी भी पत्थर की मूर्ति में प्राण प्रतिस्थापित कर सकता है? अगर वह ऐसा करता है तो उसका अर्थ हुआ कि जो भगवान या परमशक्ति जीवों के प्राण रखती है, उस भगवान या परमशक्ति के प्राण ब्राह्मण रखता है तभी तो वह पत्थर की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठापित कर सकता है। जिस आधार पर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, “ब्राह्मण भगवान से भी बड़ा है, क्योंकि जो सभी जीवों के प्राण रखता है उसी के प्राण ब्राह्मण रखता है!”
इस आधार पर एक अन्य मुद्दा भी उठता है कि, “जब भगवान प्राण डालता है तो निर्जीव सजीव हो जाता है और वह सजीवता के सभी प्रमाण प्रस्तुत करता है किंतु जब ब्राह्मण प्राण प्रतिष्टित करता है तो मूर्ति निर्जीव की निर्जीव ही बनी रहती है वह सजीवता के कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं करती!” जिससे लगता है कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्टित नहीं हुए बल्कि झूठ भ्रम फैलाया गया।
इसी आधार पर एक अन्य प्रश्न यह भी उठता है कि, “ईश्वर केवल उसी वस्तु में प्राण प्रतिष्टित करता है नो वस्तु पंच तत्वों से निर्मित है या फिर जो प्राण प्रतिष्टित होने के बाद सजीव हो सकती है, उनमें नहीं जो प्राण प्रतिष्टित होने के बाद भी सजीवता के प्रमाण प्रस्तुत ना कर सकें, जैसे किसी पत्थर पत्थर में ईश्वर प्राण प्रतिष्टित नहीं करता बल्कि जीव के शरीर में ही करता है जो प्राण शक्ति लेकर सजीवता का प्रमाण प्रस्तुत कर सकती है!” अगर ऐसा ही है तो फिर ब्राह्मण पत्थर में प्राण प्रतिष्टित क्यों करता है? शायद इसलिए कि अगर कोई जिज्ञासु व्यक्ति पूछे कि, “क्या इस मूर्ति में प्राण है क्या यह सजीव है?” तो ब्राह्मण कह सके कि इसमें भगवान के प्राण है और भगवान ऐसे ही हर किसी को दर्शन नहीं देते बल्कि उसके लिए दान देना पड़ता है, चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है और ब्राह्मण की सेवा करनी पड़ती है।
मैं मूर्ति पूजा का विरोधी नहीं क्योंकि मैं भी करता हूँ परंतु मुझे हिंदू धर्म का पत्थर की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठित करने का यह तर्क समझ नहीं आता। इससे समझ ही नहीं आता कि भगवान बड़ा है जो सभी जीवों में प्राण डालता है या फिर ब्राह्मण बड़ा है जो भगवान में ही प्राण प्रतिष्टित करता है।
prAstya…..(प्रशांत सोलंकी)