” प्रशंसाओं के फूल “
” प्रशंसाओं के फूल ”
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
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मनोविज्ञान के सिध्यांतों के किताबों में एक अनूठा पाठ “प्रशंसा ” निहित है ,जिसके बिना हमारी पढ़ाई अधूरी मानी जाती है ! इस पाठ की पढ़ाई किताबों के पन्नों को छोड़ सामाजिक परिवेशों में ही हम पारंगत हो जाते हैं !
बचपन में ही इन मन्त्रों के श्लोकों को सिखाया जाता है ! कोई हमारी प्रतिभाओं ,ज्ञान और कार्यशैली को सराहें तो उन्हें विनम्रता के साथ
‘धन्यवाद् ,
थैंक्यू ,
आभार
और शुक्रिया से अपनी शालीनता दर्शाते हैं !
ज्यों -ज्यों हम बड़े होने लगते हैं अपने अभिनय ,खेल कूद ,गायन ,अध्ययन ,शिष्टाचार इत्यादि के कार्यशैलिओं से हम अपने समाज में उदाहारण बनने के प्रयास में लगे रहते हैं ! किसे नहीं भाता है कि उसकी प्रशंसा ना हो ?
विभिन्य प्रतिगोगिता परीक्षाओं में उतीर्ण होना ,अच्छे पदों पर पहुंचना ,विकास के पायदानों को छूने की ललक भला किसे नहीं होती ?..प्रशंसा सबको प्यारी लगती है और धन्यवाद् ,थैंक्यू ,आभार, शुक्रिया कहने में आपार आनंद का एहसास होता है !…
“हम अपनी
उपलब्धियों ,
पुरष्कार ,
सम्मान और
प्रशंसा पत्र को लोगों को दिखलाते हैं ! हमें यह चाह होती है लोग इसे देखें, सराहें
इसलिए हम सारे मित्रों को बतलाते हैं !!”
पर ना जाने ज्यों -ज्यों हम उम्र की दहलीजों को पार करने लगते हैं तो हम प्रायः -प्रायः कुछ इन पाठ के मन्त्रों को भूलने लग जाते हैं ! प्रशंसा कोई करें या ना करें हम स्वयं अपनी कृतिओं,भ्रमणों इत्यादि का जिक्र फेसबुक के पन्नों में इस तरह करने लगते हैं …लगता है ..उनकी उपलब्धियां हमारे सर चढ़ के बोल रहीं हैं …!
कहा भी गया है ” Self praising is not recommended ” हमें अपनी उपलब्धिओं ,रचनाओं ,विभिन्य भंगिमाओं का ही प्रदर्शन फेसबुक के पन्नों करना यथायोग्य समझना चाहिए ! हम क्या हैं …? कौन हैं ..? ..कहाँ हैं ….? इसका उल्लेख बारम्बार करने से लोगों को कुछ अरोचक लगने लगता है !…..
हमारा परिचय हमारे प्रोफाइल में ही निहित है !..हमें अपनी कलाओं को ही लोगों के समक्ष रखनी चाहिए …तालियाँ बजाने का अवसर लोगो को दें …हमें तो ‘धन्यवाद् ,थैंक्यू ,आभार और शुक्रिया देना है और कुछ नहीं —धन्यवाद् !
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
एस ० पी ० कॉलेज रोड
दुमका
झारखंड
भारत