प्रवास के दिन
. प्रवास के दिन
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वह एक असाधारण रूप से साधारण स्थान था। कक्ष में प्रवेश करते ही ठीक सामने एक चौकी किसी साधक के समान स्थिर थी।उसकी जीर्णता आभासी ऐतिहासिकता का भ्रम उत्पन्न कर रही थी।प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर बेंत से बनी एक खुली अलमारी विराजमान थी जिस पर कुछ पुस्तकों के अतिरिक्त दैनिक जीवन की वस्तुएँ व्यवस्थित थीं। पुस्तकों की अत्यंत न्यून संख्या के कारण यह अनुमान लगाना लगभग असंभव था कि यह किसी शिक्षक का कक्ष होगा।कक्ष के दक्षिण पार्श्व की भित्ति पर गढ़ी खूँटी हृदय में धंसे किसी शल्य के मानिंद थी जिस पर निस्पन्द जीवन ने आत्मा और मन को उतार कर टाँग दिया था। प्रवेश द्वार के सम्मुख वाली भीत पर एक विशाल झरोखा, क्षितिज तक फैले हुए समतल खेत और आम्र के उद्यान में ताका झाँकी करता था।इस झरोखे में तीन कपाट थे किंतु एक ही कपाट सुचारू रूप से गतिशील था, जिसके कारण बाहरी दुनिया भी संकुचित प्रतीत होती थी। यही स्थिति अनेक बार मन के द्वार संकुचित होने पर भी होती है। एकाकी क्षणों में यह झरोखा ही था जो मेरे और प्रकृति के बीच संपर्क एवं संवाद स्थापित कराने में मध्यस्थ की भूमिका निभाता था। रंग बदलती ऋतुओं का एहसास कराना इसका एक अन्य कार्य था।
वाम पार्श्व की भीत पर एक अन्य द्वार था जो स्नानगृह में खुलता था। नित्य स्नान तो मात्र काय शुद्धि का साधन है किन्तु मन वचन एवं कर्मों की शुचिता तो सत्वावजय से ही प्राप्त होती है।
झरोखे के बायीं ओर की भीत के समीप पटल डालकर रसोईघर बनाने का प्रयास किया गया था। इसी भीत के समीप दूसरी ओर संदूक रखा हुआ था जिसमें वस्त्र एवं कुछ आवश्यक वस्तुएँ सुरक्षित थीं।मात्र इतना ही था मेरा प्रवास निलय। किसी भी प्रकार की साज सज्जा का प्रयास नहीं किया था मैंने।
वास्तव में विधि के विधान के समक्ष मैं विवश था….नतमस्तक था।जैसे कल ही तो बात थी कि परिवार के साथ सुखमय जीवन व्यतीत हो रहा था कि अचानक स्थानांतरण आदेश प्राप्त हुआ तो लगा कि पांव के नीचे से धरती खिसक गई।सशंकित मन रात भर विचारों में डूबा रहा। निद्रा तो जैसे कोसों दूर देशाटन पर थी। अगली सुबह भारी मन से कार्य स्थल के लिए प्रस्थान किया। उसके पश्चात आने जाने का यह क्रम नियमित अंतराल पर बना रहता था।
भोर में प्राची पथिक भगवान सूर्यनारायण और मैं साथ-साथ चलना आरंभ करते, हम दोनों ही लगातार होड़ करते,चलते ही जाते। कभी लगता कि मैं जीतूंगा तो कभी दिनकर आगे होता। अंततः शाम को दोनों ही निढाल होकर अपने अपने प्रवास निलय में पहुंचकर मुकाबला बराबरी पर छोड़ देते।प्राची की स्मृतियों में रवि रह रहकर सिसकता, किंतु पिशाचिनी निशा के अट्टाहस में वह मंद ध्वनि ना जाने कहां खो जाती।
मेरा कक्ष दूसरी मंजिल पर था जिसके सामने एक विस्तृत खुली छत थी। सामान्यतः छत पर अन्य कोई आता जाता नहीं था। ऐसे शांत विजन स्थान पर रहने का पूर्व में मुझे कोई अनुभव न था। मेरा प्रयास रहता था कि अधिक से अधिक समय मैं कार्य स्थल पर ही व्यतीत करूं पर अंतत मुझे अपने भूतिया निवास स्थान पर आना ही पड़ता था। एकाकीपन मेरी अभिरुचि नहीं वरन विवशता थी। न जाने कब मैं धीरे-धीरे इसका अभ्यस्त हो गया ,मैं जान ही ना सका।जब व्यक्ति को एकाकीपन रास आने लगे तब उसे स्वयं से भयभीत होना चाहिए। यह मन की सामान्य वृत्ति तो नहीं ही है। अवसाद के लक्षणों में यह भी एक लक्षण हो सकता है। एकांत साधना से समाधिस्थ हो जाना एक अन्य वृत्ति है, किंतु मेरा मन तो उस ओर प्रवृत्त न था।वह तो प्रतिपल प्रभु से एक ही प्रार्थना करता कि मुझे मेरे स्वजनों के समीप पहुंचा दो।इस प्रकार मैं यूँ ही कई दिनों तक विचारों में खोया रहा फिर एक दिन मुझे अहसास हुआ कि मैं अपने कक्ष में अकेला नहीं हूँ। कोई और भी है जो निःशब्द मेरे साये की तरह उसी कक्ष में निवास करता है। उसने कभी अपनी उपस्थिति को प्रदर्शित न किया या फिर मैंने ही संज्ञान में लेने का प्रयास नहीं किया, यह निर्णय करना किंचित दुष्कर कार्य था।कुछ ही देर में ज्ञात हुआ कि वह एक नहीं वरन् दो हैं। बेंत की अलमारी के पीछे छिपा जीव भोजन सामने देख बाहर निकल आया था। हाँ ठीक पहचाना! वहाँ छिपकली थी। सरिसृप वर्ग का यह प्राणी स्वभाव से शर्मीली होता है।उस ओर ध्यानाकर्षित होकर कौतुहलवश मैं उसके क्रिया कलापों को देखने लगा। अनेक बार मैं उसके अत्यंत समीप चला जाता ।प्रारंभ में तो वह भय के कारण दूर भाग जाती परन्तु बाद में वह उसकी अभ्यस्त हो चली थी।अनेक बार नितान्त एकाकी क्षणों में वह मुझे एहसास कराती कि कोई तो है मेरे आस पास, मैं निपट अकेला नहीं हूँ।देखते ही देखते कब उसके क्रिया कलापों को देखना मेरे दैनिक जीवन का अंग हो गया ,मुझे पता ही न चला।कक्ष में आने पर यदि वह दिखाई न दे तो दृष्टि उसे खोजने लगती थी,थोड़ी बहुत देर में वह स्वयं ही प्रकट हो जाती थी।
जिज्ञासा बढ़ी तो मैंने छिपकली से संबंधित उपलब्ध जानकारियों को खंगालना शुरू कर दिया।जनसाधारण में यह एक आम धारणा है कि छिपकली विषैली होती है किंतु मेरे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब मुझे यह ज्ञात हुआ की वास्तविकता इसके विपरीत है। इसके तो दाँत भी इतने छोटे-छोटे होते हैं कि काट कर कोई बड़ा घाव करने में यह सक्षम नहीं है।घरेलू छिपकली तो एक सीधा-साधा जीव है जो छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े खाकर अपना जीवन यापन करता है। कुछ विषैले सर्प जैसे वाइपर आदि के अंडे तो इसका प्रिय भोजन हैं,इस दृष्टि से देखा जाए तो छिपकली हमारे लिए मित्रवत है।तथ्यों का अन्वेषण करते बोझिल होती पलकों में न जाने कब निंदिया ने अपना बसेरा बना लिया।अगली सुबह जगमग करते प्रकाश पुंज ने झरोखे से प्रविष्ट होकर मेरे माथे को थपथपाया। असंख्य रज कणों को उस प्रकाश पुंज में तैरते देखा तो लगा कि यही तो जीवन का दर्शन है। एक पल में गिरते, अगले ही पल वेग से उड़ जाते। बार बार यही क्रम दोहराया जाता, ठीक जीवन के उतार चढाव की तरह।हाँ एक बात तो निश्चित थी कि जीवन में ऊर्जा का अनंत भंडार है जिसे मात्र नियंत्रित करने की आवश्यकता है। यदि इस गति को एक दिशा प्रदान कर दी जाए तो नव निर्माण, नया आवेग जीवन में दृष्टिगोचर हो जाय अन्यथा यों ही भटकते रज कण की तरह व्यतीत हो जाएगा यह जीवन। मैं इन्हीं विचारों में मग्न था कि अचानक मेरी तन्द्रा टूट गयी। झरोखे के कपाट पर चहल कदमी करते हुए मानो छिपकली कह रही थी दार्शनिक महोदय! आभासी दुनिया त्याग कर यथार्थ की धरा पर उतर आओ।उसे इस प्रकार झरोखे,दीवार और छत पर चंक्रमण करता हुआ देखकर एक बार पुनः अन्वेषण प्रारंभ हो गया कि आखिरकार यह छत या दीवारों से गिरती क्यों नहीं? उत्तर जीव वैज्ञानिकों ने पहले ही खोज रखा था। छिपकली के चारों पैरों के तल भाग में असंख्य अंकुश के समान संरचनाएं होती हैं जो छत को मजबूती से पकड़ कर रखती हैं। इसके अतिरिक्त छिपकली के पैर एवं सतह के बीच निर्वात उत्पन्न हो जाता है जो उसे सतह से चिपका कर रखता है।
प्रकृति प्रत्येक जीव को अपना अस्तित्व बनाए रखने का अवसर प्रदान करती है। छिपकली को यह अवसर उसकी पूँछ के रूप में प्राप्त हुआ है जो इसे अन्य सरीसृपों से अलग करता है।जब कोई शत्रु अत्यंत निकट आ जाता है तब विपत्ति का आभास होते ही छिपकली अपनी पूंछ को शरीर से अलग कर देती है जो कुछ देर तक छटपटाती रहती है। शत्रु को भ्रम होता है कि वह अभी भी उसकी पकड़ में है। कुछ ही दिनों में पूँछ पुनः अपने स्थान पर उग आती है।
बसंत ऋतु बीत चली थी। शीतकाल में सूर्य किरणों से जो मित्रता थी उसमें अब पहले जैसी मधुरता न रही। मुझे उसके व्यवहार में उत्पन्न हुई उष्णता अखरने लगी थी। दिन के दूसरे प्रहर में सूर्य किरण पुनः मित्रता के आशय से झरोखे पर दस्तक देती, किंतु मैं पूरी कठोरता से झरोखे के कपाटों को बंद कर देता था। लगभग एक प्रहर प्रतीक्षा के बाद वह सूर्य का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ जाती थीं। मुझे हेमंत ऋतु आनंददायी लगती है किंतु छिपकली की पसंद इसके उलट है। अन्य सरीसृपों के समान वह एक अनियततापी जीव है जो सूर्य के ताप से अपने शरीर के भीतर के वातावरण को उष्ण रखता है। वातावरण अब छिपकली के मनोनुकूल था। वंश वृद्धि का काल भी प्रारंभ हो चला था। एक दिन साफ सफाई के समय अलमारी के पीछे चने से कुछ बड़े श्वेत वर्ण के छिपकली के अंडे दिखाई दिए।माता छिपकली सूर्य के ताप के सहयोग से इन अंडों को सेती है।लगभग 50 से 70 दिन के बीच अंडों से छिपकली बाहर आ जाती है।
कुछ दिन और बीते फिर मैं अवकाश व्यतीत करने अपने घर चला गया।लगभग एक माह के बाद जब मैं वापस लौटा तो छिपकली परिवार में एक नए सदस्य का आगमन हो चुका था। एक नन्ही सी छिपकली बिल्कुल आत्म निर्भर होकर स्वयं ही अपने भोजन को जुटाने में लगी हुई थी।माता छिपकली अत्यंत लापरवाह जीव होती है। वह अपनी संतानों को जन्म देकर उनके हाल पर छोड़ देती है। नन्ही छिपकली भी जन्म के तुरंत बाद आत्म निर्भर जीवन जीने की अभ्यस्त हो जाती है।
ग्रीष्म ऋतु में मैं अपने कक्ष के द्वार को संध्या काल में खुला ही रखता था।एक दिन अचानक प्रथम पूज्य देव विघ्नेश्वर के वाहन मूषकराज,विघ्न बनकर मेरे कक्ष में प्रविष्ट हुए। हुण और तुर्क आक्रांतओं के समान मेरे नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने का बीड़ा लेकर आये थे मूषकराज। दो जीवों के बीच सहजीविता दो ही परिस्थितियों में सम्भव है- या तो उनके बीच परस्पर सहयोग की भावना हो अथवा उदासीन व्यवहार होने पर भी कोई दूसरे को हानि नहीं पहुंचा रहा हो। किसी प्रकार का नुकसान सहजीविता की संभावना को समाप्त कर देता है । कुछ पुस्तक कुतरी हुई मिलीं तो मैं भी उसे भगाने के लिए कमर कस ली।परन्तु वह तो प्रशिक्षित छापामार योद्धा के समान मुझे चकमा दे जाता।छिपकली तो मुझे कोई हानि नहीं पहुँचाती थी पर मूषकराज ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि कैसे उससे निजात पायी जाए।मैंने देखा कि जल निकासी के मार्ग का सुरंग की तरह उपयोग कर वह आतंकी हमला कर देता था। मैंने ईट का प्रयोग कर उस मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। इस तरह मैंने मूषकराज से निजात पा ही ली।
भागमभाग भरे जीवन के कुछ और माह व्यतीत हो चुके थे। नन्ही छिपकली अब युवा होकर चपलता से अपना शिकार पकड़ने लगी थी। पहले वह दबे पाँव शिकार के पास जाती और फिर पलक झपकते ही अपनी लंबी जीभ निकालकर शिकार को पकड़ लेती।उसे इस प्रकार प्रयास करता देख मन में प्रश्न आता कि क्या क्षुधा शांति का प्रयास मात्र है जीवन का उद्देश्य? पशुओं से भिन्न मानव जीवन का उद्देश्य तो निश्चय ही कुछ श्रेष्ठ होना चाहिए।
एक दिन शाम के समय, मैं बैठा चाय का आनंद ले रहा थाकि एक विचित्र घटना घटित हुई। युवा छिपकली बूढ़ी छिपकली से जूझ रही थी। देखते ही देखते लड़ाई ने विकराल रूप धारण कर लिया।युवा छिपकली में चपल गति एवं बल था तो बूढ़ी छिपकली अपने अनुभव से मुकाबले में बनी हुई थी। अंततः बल के समक्ष वृद्धावस्था नतमस्तक हुई। युवा छिपकली ने विजयी प्रहार कर बूढ़ी छिपकली को दीवार से नीचे गिरा दिया और फिर दाहिनी एवं बायीं ओर गर्दन घुमायी मानो विजयी अट्टहास कर अपनी जीत का उत्सव मना रही हो।बूढ़ी छिपकली पराजय स्वीकार कर धीरे धीरे रेंगते हुए कक्ष से बाहर चली गई।मानव परिवारों में भी बहुधा देखने को मिलता है कि संतानें बूढ़े माँ बाप को उनके हाल पर छोड़ देती हैं तब एहसास होता है कि विकास के क्रम में सरिसृप वर्ग की छिपकली हमारी पूर्वज ही तो है। माता पिता के लिए ऐसी संवेदनहीनता मानव ने छिपकली से सीखी या छिपकली ने मानव से, यह निर्णय करना अभी शेष है।छिपकलियों की इस लड़ाई में मैंने प्रकृति के विधान में कोई हस्तक्षेप नहीं किया,निर्विकार आत्मा की तरह केवल क्रियाओं का साक्षी मात्र था मैं।कौतूहलवश छिपकली के बारे में मैं नित नूतन जानकारी जुटा लेता था जैसे कि यह गैकोनिडी वंश का प्राणी है। इसकी आँखें अचल पुतली बाली होती हैं। शरीर शल्कों से ढका रहता है। जिह्वा लंबी, मांसल,बाहर निकलने वाली ,अग्र भाग पर कटी हुई होती है।
समय अपनी गति से चलता रहता है। समय के बारे में एक अच्छी बात यह है कि चाहे बुरा हो अथवा अनुकूल, समय व्यतीत अवश्य हो जाता है।मेरे प्रवास का समय भी व्यतीत हो चला था।एक बार पुनः परिवार के साथ जीने की उमंगें मन में संजोए मैंने अपने प्रवास निलय से अंतिम विदाई ली। छिपकली अभी भी अलमारी के पीछे निश्छल भाव से विश्राम कर रही थी।लंबे अंतराल के बाद भी जब कभी प्रवास के दिनों को याद करता हूँ तो छिपकली भी बरबस याद आ ही जाती है।
– डॉ प्रणव गौतम
राजकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय एवं चिकित्सालय बरेली