प्रयत्न लाघव और हिंदी भाषा
भाषा मात्र भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं है अपितु ज्ञानराशि को संचित करने तथा किसी देश के ज्ञान -विज्ञान के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता को जानने का प्रभावी एवं उपादेय साधन है। अतः भाषा को संरक्षित करना अत्यंत आवश्यक है।
प्रत्येक भाषा की शब्दावली में समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी होते हैं ।भाषा के परिवर्तन में मुख-सुख और प्रयत्न लाघव,अज्ञानता तथा अन्य भाषा-भाषी लोगों की भी भूमिका होती है।प्रत्येक भाषा का शब्द भंडार समय के साथ घटता-बढ़ता रहता है। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो प्रचलन से बाहर हो जाते हैं तो कुछ नवीन शब्द भाषाओं के शब्द भंडार की अभिवृद्धि करने लगते हैं।चूँकि संचार और तकनीक के विकास ने दुनिया को एक गाँव के रूप में बदल दिया है अतः व्यापारिक दृष्टि से एक -दूसरे से संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से तथा तकनीकी शब्दावली के रूप में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को भी भिन्न भाषा-भाषियों के द्वारा आत्मसात किया जाता है। हरेक भाषा के भाषाविदों, भाषा विशेषज्ञों ,वैयाकरणों तथा प्रबुद्ध वर्ग द्वारा भाषा की संसरणशीलता पर पैनी नज़र रखना आवश्यक होता है। कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जो भाषा के ढांचागत स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन कर देते हैं जो अत्यंत हानिकारक होते हैं।
भारत एक विकासशील राष्ट्र है ,जो तीव्र गति से विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में सम्मिलित होने की ओर अग्रसर है।इसका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र पर दृष्टिगत हो रहा है।भारत की राजभाषा हिंदी भी इससे अछूती नहीं है।आज हिंदी राष्ट्र भाषा के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने की ओर उन्मुख है। अतः यह ऐसा दौर है जब हमें हिंदी भाषा के संस्कार को मर्यादित तथा अनुशासित रखना आवश्यक है।
आजकल हिंदी भाषा में ऋ स्वर से निर्मित होने वाले शब्दों में एक परिवर्तन दिखाई देता है जो चिंता का विषय है। शिक्षित लोगों एवं विद्यार्थियों के द्वारा ऋचा, ऋतिक, ऋतु, ऋषि आदि शब्दों को रिचा,रितिक,रितु और रिषि के रूप में लेखन का प्रचलन बढ़ रहा है। भाषा का यह परिवर्तन प्रयत्न लाघव के रूप में देखा जा सकता है। मुख सुख या प्रयत्न लाघव शब्द भाषा में जिह्वा को बिना अधिक तोड़े-मरोड़े शब्दों के उच्चारण को लेकर प्रयुक्त होता रहा है अर्थात थोड़ा-सा श्रम करके अधिक कह देना मुख-सुख या प्रयत्नलाघव है। यह मुख-सुख की क्रिया कई बार शब्दों के रूप को बदल देती है तो कई बार वाक्य को छोटा कर देती है; जैसे- यदि किसी से पूछा जाए कि आप कब आए? तो उत्तर मिलता है- अभी-अभी या थोड़ी देर पहले। कोई यह नहीं कहता कि ‘मैं अभी-अभी आया हूँ।’ अथवा ‘मैं थोड़ी देर पहले आया हूँ।’ हिंदी भाषा के अधिकांश तद्भव शब्द इसी मुख-सुख का परिणाम प्रतीत होते हैं।
मेरी दृष्टि में मुख-सुख और प्रयत्न लाघव को हम भले ही भाषा के उच्चारणगत रूप के लिए प्रयोग करते आ रहे हैं किंतु मुख-सुख का संबंध भाषा के उच्चारणगत रूप से तथा प्रयत्न लाघव को भाषा के लिखित रूप से जोड़कर देखना अधिक युक्तिसंगत होगा। भाषा के लिखित रूप में प्रयत्न लाघव के अनेक रूप दिखाई देते हैं। ये रूप व्याकरण सम्मत एवं मान्य भले न हों पर प्रचलन में अवश्य हैं ; जैसे- धीरे-धीरे को धीरे 2 लिखना।भाषा में लेखन का यह रूप वैसे तो गणित से प्रभावित है जहाँ हम किसी संख्या को वर्ग में प्रदर्शित करने के लिए उसके ऊपर 2 की संख्या लगा देते हैं। पुनरुक्तिसूचक चिह्न (“) का प्रयोग भी इसी प्रयत्न लाघव का परिणाम है कि ऊपर लिखा वाक्य या वाक्यांश नीचे पुनः न लिखना पड़े।ध्यातव्य है कि कुछ प्रयत्न लाघव स्वीकार्य हो सकते हैं किंतु सभी नहीं। आजकल लोगों के द्वारा अनुस्वार ( शिरोबिंदु) तथा अनुनासिक ( चंद्रबिंदु) को भी धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है जबकि इन दोनों का प्रयोग अलग-अलग स्थितियों में होता है। अनुस्वार और अनुनासिक के अंतर को हंस और हँस के उदाहरण द्वारा सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। हंस एक पक्षी का नाम है और हँस हँसना क्रिया का धातु रूप।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली द्वारा ‘देवनागरी लिपि एवं वर्तनी का मानकीकरण’ के लिए ई-पुस्तक के रूप में जो दिशा-निर्देश/ नियम 2019 में निर्धारित किए गए हैं उनमें ‘ऋ’ को हिंदी के एक स्वर के रूप में मान्यता दी गई है तथा लोगों के द्वारा भी ‘ऋ’ का प्रयोग किया ही जाता है। अतः व्यावहारिक अथवा सैद्धांतिक रूप में कहीं भी ऋ के प्रयोग की वर्जना नहीं है। फिर भी यदि ‘ऋ’ स्वर का प्रयोग ‘रि’ के रूप में लेखन में प्रयुक्त किया जाता है तो यह परिवर्तन हिंदी में संस्कृत के व्याकरण को प्रभावित करने क्षमता रखता है और यह हिंदी भाषा के घातक सिद्ध हो सकता है। हिंदी को ‘संस्कृत की बेटी’ माना जाता है। हिंदी का व्याकरण, शब्द भंडार सभी कुछ संस्कृत से लिया गया है। यदि कालांतर में ‘ऋ ‘ स्वर के प्रचलित अशुद्ध रूप के कारण व्याकरण प्रभावित होता है तो इससे अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होगी।
हिंदी में स्वर संधि के अंतर्गत- दीर्घ संधि, यण संधि एवं गुण संधि के साथ समान या असमान स्वर के मेल से नए शब्द का निर्माण किया जाता है।दीर्घ संधि के अंतर्गत पितृ+ ऋण= पितॄण बनता है जिसे हिंदी में पितृण लिखा जाता है।अब यदि ऋण को रिण लिखा जाएगा तो ‘पितृण’ शब्द का निर्माण संभव नहीं होगा, क्योंकि पितृ के ऋ के पश्चात ऋ स्वर न आकर रि का इ आ जाएगा जो दीर्घ संधि के निर्माण में बाधक होगा। इसी तरह गुण संधि में अ,आ के पश्चात जब ऋ आता है दोनों ‘अर्’ में परिवर्तित हो जाते हैं; जैसे – महा+ ऋषि= महर्षि। यदि ऋषि को रिषि लिखा जाएगा तो गुण संधि का यह नियम प्रभावी नहीं होगा। ऐसी स्थिति में पितृण और महर्षि जैसे शब्द जो संधि से निर्मित हैं ,इन्हें मूल शब्द के रूप में मान्य करना पड़ेगा और यह युक्तियुक्त नहीं होगा।
महर्षि पाणिनि के माहेश्वर सूत्र- 1. अ इ उ ण् 2. ऋ लृ क् 3. ए ओ ङ् 4. ऐ औ च् 5. ह य व र ट् 6. ल ण् 7. ञ म ङ ण न म् 8. झ भ ञ् 9. घ ढ ध ष् 10. ज ब ग ड द श् 11. ख फ छ ठ थ च ट त व् 12. क प य् 13. श ष स र् 14. ह ल् तथा इनसे निर्मित होने वाले ‘प्रत्याहार’ जो संस्कृत और हिंदी व्याकरण के लिए बीज मंत्र सदृश माने जाते हैं, उनमें परिवर्तन या संशोधन अपनी विपुल और समृद्ध साहित्यिक विरासत से छेड़-छाड़ होगी।और यह एक आत्मघाती कदम के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा।
इसी क्रम में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा निर्गत ‘देवनागरी लिपि एवं वर्तनी का मानकीकरण’ ई- पुस्तक के 1999 संस्करण के पृष्ठ संख्या 15 के नियम 3.1.2.2 और 3.1.2.5 का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। 3.1.2.2 के अनुसार द के साथ अर्ध स्वर य और व आने पर हलंत के स्थान पर संयुक्त व्यंजन बनाने के परंपरागत रूप को प्राथमिकता दी जाए ; जैसे- विद्या, द्विवेदी ,द्विधा आदि। यहाँ पर ध्यान रखने वाली बात यह है कि द् और य को जब द्य रूप में लिखा जाता है तो एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है कि यह वर्ण द्य है या ध।विद्यालय जैसे शब्द का उच्चारण विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर के पद पर कार्यरत महानुभावों के द्वारा भी कई बार विधालय के रूप में किया जाता है। यदि द्य को द् य लिखा जाएगा तो उच्चारणगत रूप शुद्ध हो सकता है और इससे लोगों को भी समझने में आसानी होगी कि द्य वर्ण द्+य के योग से बना संयुक्ताक्षर है।
नियम 3.1.2.5 के अनुसार हलंत् चिह्न युक्त वर्ण से बनने वाले संयुक्ताक्षर के साथ आने वाली ह्रस्व इ की मात्रा को शब्द युग्म के पूर्व से लगाते हुए पूर्ण व्यंजन तक ले जाया जाए; जैसे -चिट्ठियाँ, बुद्धिमान
यहाँ पर विचारणीय प्रश्न यह है कि जब चि ट् ठियाँ और बुद् धि जैसे शब्दों में ह्रस्व इ की मात्रा का ठ और ध के साथ उच्चरित हो रही है तो इसका प्रयोग ट् और ध् से पूर्व करने का विधान क्यों? इससे विद्यार्थियों एवं अन्य भाषा-भाषी लोगों को समझने में असुविधा होती है।
अतः यह आवश्यक है कि ‘ऋ’ स्वर लेखन को लेकर जो बदलाव होते दिखाई दे रहे हैं उसके लिए भाषाविदों,वैयाकरणों, भाषा विशेषज्ञों ,प्रबुद्ध वर्ग और शिक्षक समुदाय के द्वारा एक सार्थक एवं ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है जिससे हिंदी भाषा में होने वाले विकार को निवारित किया जा सके।
डाॅ बिपिन पाण्डेय