प्रभु श्री राम
कल रात प्रभु सपने में आये
थोड़ा मंद मंद मुस्काये….
मैने पूछा प्रभु खुश तो हैं अब
जानता हूँ आप ही का खेल है सब ,
प्रभु ये सुन फिर मुस्काये
मैं देखता रहा बिना पलक झपकाये ,
फिर भगवन ने अपने पास बुलाया
बड़े प्रेम से मुझे समझाया ,
बात मेरी खुशी की नहीं
भक्तों के खुशी की है ,
मैं तो हर हाल में खुश हूं
इतने वर्षों से चुप हूं ,
देख रहा था अपनों को
उनके विराट सपनों को ,
उनकी मुझमें जो आस्था थी
उनके दृढ़ विश्वास का वास्ता थी ,
मैंने तो खुद कर्म में विश्वास किया
अपनों को नहीं निराश किया ,
इनका भी तो ये कर्म था
मेरे प्रति इनका धर्म था ,
भगवान हो कर इंसान की योनी में आया
फिर कैसे दिखाता सबको अपनी माया ,
त्रेता में मैं लड़ा अधर्म की खातिर
कलियुग में तो अधर्मी हैं बड़े शातिर ,
भक्तों को रहना था कानून के दायरे में
सत्य को जीतना था हर एक मायने में ,
बनवास तो विधि का विधान था
उसको स्वीकारना मेरा अभिमान था ,
उस वनवास से भी घर वापस आया था
दीपों से अयोध्या जगमगाया था ,
आज मैं वनवास से लाया गया हूं
फिर से अपने घर में बैठाया गया हूं ,
यहाँ इतना मेरा सम्मान है
मेरी आन सबकी आन है ,
मैं चकित हूं इनके प्रेम पर
हृदय द्रवित है ये सब देख कर
जैसे तब तैरे थे पत्थर मेरे नाम से
आज तर गया मैं भक्तों के इस मान से ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंंह देेेवा )